कहो तो
‘इन्द्रधनुष’
ख़ून-पसीने को बिना पोंछे

दायीं ओर भूख से मरते लोगों का
मटमैले आसमान-सा विराट चेहरा
बायीं ओर लड़ाई की ललछौंही लपेट में
दमकते दस-बीस साथी

उभरकर आएगा ठीक तभी
सन्नाटे की सतह भेदकर
तुम्हारा उच्चारण

कहो तो
कैसे भी हो, कहो तो
‘इन्द्रधनुष!’

इस तरह हम देखेंगे
तुम्हारी वाचिक हलचलों के आगे
सात रंगों को पराजित होते हुए

एक दुर्लभ मोन्ताज को मुकम्मल करेगी
तूफ़ान की खण्डहर पीठ
जो दिखायी दे रही है
सुदूर
जाती हुई

कह सकोगे
ऐसे में
‘इन्द्रधनुष’

अज्ञात सम्भावनाओं की गोद में
उत्सुक गुलाबी इन्तज़ार है
तुम्हारे मौन-भंग की
उम्मीद में ठहरा हुआ

अब तो
कह भी दो
कि दर्शकों की बेसब्री
बढ़ती जा रही है

वे उठकर चले जाएँ
इससे पहले ही
कह डालो
‘इन्द्रधनुष!’
—चाहे जैसे भी हो!

बाद में
अगर हो भी जाओगे
गुमसुम
तो गूँजें-प्रतिगूँजें होंगीं
ज़र्रे-ज़र्रे को
इन्द्रधनुष की
उद्घोषणा बनाती हुई!

वेणु गोपाल की कविता 'प्यार का वक़्त'

Recommended Book:

Previous articleकृष्णा सोबती – ‘मित्रो मरजानी’
Next articleएक कम है

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here