‘Kajal Ka Teeka’, a poem by Amandeep Gujral

माँ काजल का टीका लगा
बचा लिया करती थी
अनगिनत बलाओं से मुझे
हर शनिवार, वार कर मिर्ची
उतार दिया करती थी नज़र
मना करने पर दिखाती थी मनगढ़न्त चेहरे
जली हुई मिर्ची के ऊपर
तैयार होने पर, ‘थू थू कितनी गन्दी दिखती है’ कह
अपना मुँह घुमा लिया करती थी जान बूझकर
फिर कनखियों से तकती रहती थी
मुझे जाने कितनी देर
यक़ीन मानिए
मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं आता था
उनका काजल लगाना, मिर्ची वारना और थू थू करना।

आज मैं उसके लिए सब कुछ करती हूँ
उसकी सब बलाएँ, उसको लगी नज़र उतार देना चाहती हूँ
इसलिए थू थू कर देती हूँ अक्सर
उसे नापसन्द होने के बाद भी।

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