उपन्यास: ‘कंथा’
लेखक: श्याम बिहारी श्यामल
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
समीक्षा/टिप्पणी: संगीता पॉल
हिन्दी की साहित्यिक दुनिया से वास्ता रखने वाला हर व्यक्ति जयशंकर प्रसाद के साहित्य से परिचित है, लेकिन उनकी तुमुल कोलाहल भरी जीवन-कथा से हम अब तक अपरिचित रहे हैं। इस कमी को हाल में प्रकाशित श्यामबिहारी श्यामल का उपन्यास ‘कंथा’ पूरा करता है। प्रसाद के महाप्रयाण के आठ दशक बाद श्यामबिहारी श्यामल की इस ‘कंथा’ में प्रसाद का जीवन ही नहीं, उनका पूरा युग साकार हो उठा है।
छायावाद के युग प्रवर्तकों में से एक जयंशकर प्रसाद अनेक विषयों एवं भाषाओं के विद्वान और प्रतिभा सम्पन्न कवि रहे हैं। वह एक कुशल कहानीकार, निबन्धकार, नाटककार एवं उपन्यासकार भी थे।
श्यामल पेशे से पत्रकार रहे हैं और अपनी पेशेवर दक्षता का उन्होंने अद्भुत रचनात्मक उपयोग किया है। उपन्यास लिखते समय उन्होंने जिस प्रकार का गहन-शोध किया है, जिस प्रकार से जगह-जगह यात्राएँ करके सामग्री जमा की है, वह एक गैर-पत्रकार के लिए सम्भव नहीं होता।
कंथा में श्यामल बताते हैं कि किस तरह वह बनारस पहुँचे और कैसे उन्होंने जयशंकर प्रसाद का घर खोजा। किस तरह से प्रसाद जी के परिवार के लोगों से मिले, प्रसाद जी के पुराने दोस्तों से मिले, और उनके पौत्र किरणशंकर और पुत्र रत्नशंकर समेत दर्ज़नों लोगों से मुलाक़ात की।
वे जयशंकर प्रसाद के दोस्त डॉक्टर राजेंद्र नारायण शर्मा और डॉक्टर एच.सिंह से भी मिले, जो महाकवि की अन्तिम बीमारी के साक्षी रहे थे।
श्यामल जी ने उस समय के बनारस के साहित्य-जगत का ही नहीं, बल्कि पूरे हिन्दी-क्षेत्र के साहित्य-जगत का वर्णन किया है। इस प्रकार से उन्होंने बीसवीं सदी के आरम्भिक दौर के उस पूरे परिदृश्य को उसके सम्पूर्ण रूप-गुण, राग-रंग और घात-प्रतिघातों के साथ साकार कर दिया है, जिसमें प्रसाद का कृति-व्यक्तित्व विकसित हुआ था।
प्रसाद जी के जीवन-काल में उनके बारे में जो अफ़वाहें फैलायी गई थीं, जो ग़लतबयानी की गई थी, वह सब ‘कंथा’ में सामने आया है। श्यामल जी ने इस उपन्यास में प्रसाद के युग का जो चित्र उकेरा है, उसमें मदन मोहन मालवीय, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, शिवपूजन सहाय, महादेवी वर्मा, रामचंद्र शुक्ल, केशव प्रसाद मिश्र, राय कृष्णदास, विनोद शंकर व्यास, कृष्ण देव प्रसाद गौड़ आदि अनेक विभूतियाँ भी जीवंत रूप से सामने आती हैं।
इस उपन्यास में प्रसाद जी की बीमारी का भी मार्मिक वर्णन है। किस तरह से डॉक्टरों ने उनको बचाने की कोशिश की और किस तरह से उनका निधन हुआ, यह सब उपन्यास में दृश्यमान होता है। आख़िरी समय में निराला जी प्रसाद जी के सामने थे, बहुत सारे अन्य साहित्यकार भी उनके समक्ष थे। निराला जी ने उस समय हारमोनियम वादन के अन्दाज़ में एक गीत गाया था। वह गीत इस प्रकार है—
“मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया
आलिंगन में आते-आते मुस्काकर जो भाग गया
जिसके अरुण कपोलों की मतवाली सुन्दर छाया में
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की
सीवन को उधेड़कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की।”
यह गीत सभी चुप खड़े सुन रहे थे। निराला जी की आँखें भीग गई थीं और उनका मुखमण्डल अत्यन्त भावपूर्ण हो गया था, उन्होंने रत्नशंकर के कंधे पर हाथ रख दिया और कहा कि प्रसाद जी सचमुच प्रसाद थे और सदा प्रसाद ही रहेंगे। उनकी गरिमा की सदा रक्षा होनी चाहिए। निराला जी के इन भावों के साथ ही यह उपन्यास ख़त्म होता है।
प्रसाद के युग को रचने के लिए इस उपन्यास में लेखक ने जिस भाषा और दृश्यबद्ध शैली को गढ़ा है, वह न सिर्फ़ उसकी तेवरपूर्ण रचनाशीलता का प्रमाण है, बल्कि पाठकों को भी विरल अनुभव प्रदान करने वाला है।
(संगीता पॉल असम विश्वविद्यालय के दीफू परिसर से जयशंकर प्रसाद और शरतचंद्र चटोपाध्याय के उपन्यासों पर शोध कर रही हैं)
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