मूर्धन्य साहित्यकार जयशंकर प्रसाद का साहित्य सर्वसुलभ है लेकिन उनके ‘तुमुल कोलाहल’ भरे जीवन की कहानी से दुनिया अब तक प्रायः अपरिचित रही है। ऐसे में, प्रसाद के महाप्रयाण के आठ दशक बाद उनकी जीवन-कथा को पहली बार पूरे विस्तार से प्रस्तुत करनेवाले उपन्यास ‘कंथा’ का महत्त्व स्वयंसिद्ध है। सुपरिचित कथाकार श्याम बिहारी श्यामल ने अपनी इस कृति में प्रसाद का जीवन-चित्र तो आँका ही है, बीसवीं सदी के आरम्भिक दौर के उस पूरे परिदृश्य को उसके सम्पूर्ण रूप-गुण, राग-रंग और घात-प्रतिघातों के साथ साकार कर दिया है, जिसमें प्रसाद का कृती-व्यक्तित्व विकसित हुआ था। उपन्यास राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है, प्रस्तुत है एक अंश—

प्रसाद की बैठकी। राजेन्द्र नारायण शर्मा के हाथ में ‘आँसू’ की प्रति देख दास ने हाथ बढ़ाया, “युवा साथी, यह दीजिए ज़रा।”

राजेन्द्र ने विनम्रतापूर्वक पुस्तक थमा दी। दास पन्ने पलटते हुए प्रसाद की ओर मुख़ातिब हो गए, “देखो मित्र, लोग मुझसे भी पूछते हैं—प्रामाणिकता की पूरी उम्मीद के साथ। मैं कुछ बता नहीं पाता। कुछ-कुछ समझता तो हूँ ही लेकिन अपने मन से। कुछ समझ लेना और इस आधार पर कोई निर्णय लेकर जारी कर देना, दोनों दो बातें हैं। मैं अपने अनुमानों के आधार पर कोई निर्णय लेकर भला कैसे प्रसारित कर दूँ?”

आचार्य केशव प्रसाद मिश्र ने टोका, “कृष्ण जी, इतना लम्बा बोल गए और अभी तक आपने अपना सवाल तक सामने नहीं रखा।”

“क्या मतलब?”

“अरे, मित्र, अपना प्रश्न तो सामने रखेंगे न!

“हाँ, मेरा प्रश्न है कि यह ‘आँसू’ आख़िर किसे सम्बोधित है? घूँघट में छुपा यह शशिमुख है कौन, जो आँचल में दीप छुपाए जीवन की गोधूलि में कौतूहल-सा आया?” [शशि-मुख पर घूँघट डाले, आँचल में दीप छुपाए… जीवन की गोधूलि में, कौतूहल-से तुम आए!]

प्रसाद चुप। ठण्डे व भावशून्य। जैसे उन्होंने अभी कुछ सुना ही न हो! सामने गली में लोगों का आना-जाना ताकते रहे। मोहनसराय से आए सुकवि मुकुन्दीलाल व मिर्ज़ापुर के कवि शिवदास की आँखें जिज्ञासा से चमकने लगीं, किन्तु वे मौन रहे।

दास ने मीठे शब्दों में कहना शुरू किया, “आपको यह प्रसंग तो याद ही होगा?”

इस पर भी उनकी ओर मुख़ातिब नहीं हुए प्रसाद। दास ने एक पल उनके उन्मुख होने का इन्तज़ार किया फिर आगे बोले, “‘आँसू’ जब पूरा हुआ था तो आपने इसे सुनाने के लिए मुझे और इन्हीं केशव जी को प्रथम श्रोताद्वय चुना था।”

केशव जैसे औचक स्मृति-संस्पर्श से मुग्ध-मुदित हो गए हों, चहककर बोले, “हाँ, हाँ, उन दिनों मैं वहीं तो आपके घर के पास ही रहता था! इटावा वाले मेरे एक मित्र की हवेली थी जिसके एक कोने में रहता था। उस घर में मेरी बैठकी बहुत सृजनशील सज्जा वाली थी—शान्त, किन्तु मन को पंछी की तरह सजग-सपंख बनाकर जाग्रत कर देनेवाली। वहाँ बैठते ही मस्तिष्क जैसे उन्मुक्त विचार-गगन में डैने लहराने लगता—ऐसी कि कमरे में क़दम रखते ही मन कुछ न कुछ पढ़ने-पढ़ाने का होने लगता। वहाँ मेरी बगिया कितनी समृद्ध थी! चमेली, बेला, रजनीगन्धा, सोनजूही—सबकी सुगन्ध तो फैलती ही रहती थी सदा और वह जो अशोकवीरो का एक ऊँचा पेड़ था, वह ग़ज़ब हरी-भरी काव्यात्मक गरिमा से भरपूर था।”

दास बोले, “हाँ-हाँ, उसी अशोकवीरो के नीचे ही तो आपने तीन कुर्सियाँ लगवायी थीं, जहाँ प्रसाद जी ने मात्र दस-बारह दिनों पहले की लिखी ताज़ा ‘आँसू’ कविता पहली बार हम दोनों को सुनायी थी—पूरी तन्मयता और रागबद्धता के साथ। कितना आनन्द आया था!… हाँ, पाठ से पहले शुरू में दो-चार शब्दों में इसका सन्दर्भ अवश्य कुछ बताया था जो अब याद नहीं। किसे पता था कि इस अंजुरी-भर आँसू का भी हिन्दी संसार समुद्र-मंथन कर-करा डालेगा?”

राजेन्द्र नारायण शर्मा ने भी धीमे स्वर में जिज्ञासा जोड़ दी, “हाँ, यह मेरी जिज्ञासा का विषय भी बना हुआ है। लोग मुझसे भी पूछते हैं।”

मुकुन्दीलाल ने बहुत शालीनता के साथ कहा, “मेरा तो एक ही विचार है।”

अलंकारशास्त्र पर उनके विशेष अध्ययन-ज्ञान का सभी लोहा मानते, इसलिए सबने उनकी ओर तन्मयता से देखा। वह आगे बोले, “शास्त्रीयता, काव्य-कौशल व रचना-सौष्ठव की दृष्टि से ‘आँसू’ दुर्लभ सृजन है। मैंने तो इसे पढ़ने के बाद अपने अब तक के आधिकारिक छन्द-ज्ञान में एक नये छन्द का नाम भी जोड़ लिया है।”

सबने चौंककर ताका, उन्होंने आगे कहा, “आँसू छन्द!”

सबकी आँखें चमकने लगीं। वह क्षणांश विराम के बाद आगे बोलते रहे, “हाँ, तो मैं यह कहना चाह रहा हूँ, जब कोई बड़ी रचना किसी प्रश्न पर मौन हो तो उसके सन्दर्भ में इस मौन को ही एक आवश्यक पाठ मान लेना चाहिए। किसी भी रचना को लेकर रचनाकार से कोई भी जबरिया पड़ताल उचित नहीं। दरअसल, यह एक सचाई है कि कोई भी रचना लिख-छपा चुकने के बाद रचनाकार इस मामले में अपनी ओर से पूरी तरह चूक जाता है। रचनाकार को अब उससे कुछ ख़ास लेना-देना नहीं होता। हो भी नहीं सकता। प्रकाशित प्रचलित रचना पर रचनाकार का बाद का कोई भी बयान किसी भी अदद पाठक के कथन से ज़्यादा महत्त्व नहीं रखता। क्योंकि रचनाकार के लिए भी अपनी किसी पूर्वरचित रचना की मूल मनोभूमि में लौटना आसान नहीं होता—अक्सर लगभग असम्भव।”

“आचार्य जी, आप इस मामले में कृपया प्रसाद जी को ही बोलने का अवसर दीजिए।” दास ने टोका, “इससे सबको लाभ होगा, आपको भी।”

वह झेंप गए। चुप। प्रसाद ने हल्का-सा मुस्कुराकर दास के हाथ से ‘आँसू’ की प्रति ले ली और पलटते हुए पूछा, “यह राजेन्द्र की प्रति है न?”

कई ने एक साथ कहा, “हाँ।”

सभी प्रसाद का मुँह ताकने लगे। उनका मुखमण्डल रक्ताभ हो दमक रहा था, जैसे आग के बीच रखा लोहा हवा पर अपनी खौलती हुई लाली छिड़कने लग गया हो! सबकी व्यग्र प्रतीक्षा से भरी चुप्पी वर्षा से ऐन पहले की कसमसाती उमस की तरह मुखर व उन्मुख। क्या पता, ‘आँसू’ के बारे में आज कौन-सा नया अनजाना तथ्य, रहस्य के अनन्त अन्धकार को चीरकर बाहर आने जा रहा हो! प्रसाद ने क़लम खोली और पुस्तक पर ही हौले-हौले शब्द टाँकने लगे—

ओ मेरे प्रेम, बता दे,
तू स्त्री है या कि पुरुष है?
दोनों ही पूछ रहे हैं,
कोमल है या कि परुष है?
उनको कैसे समझा दूँ,
तेरे रहस्य की बातें,
जो तुझको समझ चुके हैं
अपनी विलास की घातें?

जैसे खुलकर बरस चुके हों उमड़ते हुए उग्र-उन्मत्त बेचैन मेघ! जैसे घुमड़ते साँवले आलोड़नों से मुक्त व तनाव-रिक्त हो चुका हो अनन्त-अनादि आकाश! प्रसाद का प्राची मुखमण्डल नम्र-नवेली किरणों से दीप्त हो उठा। उन्होंने हाथ बढ़ाकर पुस्तक सौंपनी चाही तो एक साथ कई हथेलियाँ चकोर-मुख-सी खुल गईं।

पुस्तक आयी तो राजेन्द्र के हाथ किन्तु पृष्ठ के खुलते ही सबके शीश उस पर झुक गए। प्रसाद उठकर बाहर की ओर बढ़े तो दास ने आहिस्ते-आहिस्ते नयी पंक्तियों का कोमल पाठ शुरू किया। सबके चेहरों पर वर्षासिक्त फुनगियों-सी तृप्त पुलक डोलने लगी।

ठण्डई-पान का दूसरा दौर भी सम्पन्न होने को आया। प्रसाद बाहर से लौटते हुए रुके और मुकुन्दीलाल व शिवदास की ओर ताककर पूछा, “अब तो रात होने को आयी, आज तो आप दोनों को यहाँ रुकना ही चाहिए न!”

मुकुन्दीलाल की वाणी विनम्रता से भर गई, “हाँ, अस्सी पर हमारी एक बहन ब्याही हुई है न, वहाँ एक पारिवारिक कार्यक्रम में भी हिस्सा लेना है। वहीं रुकना भी हैं। शिवदास जी भी मेरे साथ ही रहेंगे।”

दास ‘आँसू’ पुस्तक पर प्रसाद की ताज़ा लिखी पंक्तियाँ ध्यान से देखते-मिलाते रहे। सबको चुप देखकर इस ताज़े काव्यांश को दीर्घ स्वर में पुनः बाँचने लगे। सभी विभोर होकर सुनने में मगन। देर से गुम मुस्कान प्रसाद के चेहरे पर वापस लौटी। दास ने पूर्वप्रसंग को जोड़ते हुए स्मारित करने के अंदाज़ में कहा, “ध्यान देने की बात तो यह कि आपने ‘आँसू’ की रचना जुलाई, 1922 में उस समय की है जब व्यक्तिगत रूप से आप किसी भी दुख या क्लेश की परिधि से बाहर थे। दोनों पत्नियों के निधन के बाद तीसरी शादी हो चुकी थी। ऐन इस सृजन से छह-सात माह पहले आपको पुत्ररत्न रत्नशंकर भी प्राप्त हो चुके थे अर्थात् लम्बे समय के अस्त-व्यस्त जीवन-क्रम में प्रतीक्षित सुख-चैन वापस आ गया था और प्रीतिकर क्षण भी सामने प्रस्तुत थे यानी ‘आँसू’ के सृजन के समय कोई तात्कालिक दुख या क्लेश तो कदापि नहीं था।”

प्रसाद का मौन जटिल। मुखमण्डल का सम्पूर्ण भाव-प्रदेश अभेद्य। कुछ देर अन्य सभी चुप रहे। सैदपुर का एक व्यापारी आया और निकट जाकर एक पुर्ज़ा बढ़ा दिया। इसे पकड़ते हुए प्रसाद की भाव-मुद्रा बदली। उन्होंने प्रतिष्ठान के सहयोगी को ढाई सौ डिब्बे सुँघनी पैक करने को कहा और उठ खड़े हुए। व्यापारी ने रुपये निकालकर गिने और थमा दिया। प्रसाद गिनने लगे। थोड़ी देर में आकर सामान प्राप्त करने की बात कहकर वह गली में उतर गया। प्रसाद ने रुपये ध्यानपूर्वक बक्से में डाले और सिर पर हाथ फेरने लगे।

मुकुन्दीलाल और शिवदास चलने को उठ खड़े हुए। प्रसाद ने उन्हें बहुत अंतरंगता से विदा किया। व्यास पास आए, “इधर, दो दिनों में यहाँ आ नहीं सका। असल में आगरे से मेरे एक रिश्तेदार यानी पण्डित बदरीनाथ भट्ट के भाई आ गए थे।… निराला जी का क्या हाल है? ठीक-ठाक हैं तो?”

“वो कैसे?” वह चौंके, “बदरीनाथ जी तुम्हारे रिश्तेदार कैसे हैं? वही बदरीनाथ न, जो हास्यरस के लेखक हैं?”

“हाँ, वही। वह मेरे निकट के रिश्तेदार हैं। वह मेरी दादी के भाई पण्डित रामेश्वर भट्ट के पुत्र जो ठहरे! यानी रिश्ते में मेरे चाचा।”

“वाह भई, यह तो मुझे पता ही नहीं था। ख़ैर…” प्रसाद ने आँखें मूँद लीं और कुछ सोचने लगे।

व्यास ने फिर उकेरा, “हाँ, तो मैं निराला जी के बारे में पूछ रहा था…”

प्रसाद ने आहिस्ते से कहा, “यार, तुम्हारे इस प्रश्न के उत्तर में केवल ‘ना’ ही कहा जा सकता है, कुछ और कदापि नहीं।”

“क्यों भला?”

“निराला को यहाँ स्वास्थ्य-लाभ मिल रहा है, इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं है। घर का माहौल भी मिल जा रहा है। कल ही उन्होंने मुझे स्वयं यह बताया कि उनकी बीमारी अब आठ आने तक ठीक हो चली है, हालाँकि वह समय पर दवा खाने में बहुत आनाकानी कर रहे हैं किन्तु चेखुरा उनके पीछे पड़ा रहता है। मैंने उसे ही जिम्मेवार बना दिया है न! वह ‘ना-ना’ करते रह जाते हैं, हाथ-पाँव दबाते हुए वह मुँह में दवा डाल ही देता है।”

“तो परेशानी आख़िर है क्या?” व्यास के ललाट पर जिज्ञासा चमकी।

“अरे यार, उन्हें यहाँ के वैष्णव अनुशासन में बहुत परेशानी हो रही है। वैसे तुमने मुझे अच्छी झंझट में फँसा दिया है।”

“भई, यह शख़्स इतना संवेदनशील कवि है कि इस स्थिति में हम लोग साथ नहीं देंगे तो दूसरा कौन देगा?”

“रहने में तो कोई परेशानी या आपत्ति ज़रा भी नहीं है किन्तु उनका स्वभाव, रहन-सहन, तौर-तरीक़े सब इतने विचित्र हैं कि घर में यह सब कुल मिलाकर अच्छा-ख़ासा मज़ाक़ का विषय बना हुआ है। वो तो मैं सबको दबाए हुए हूँ, नहीं तो अब तक तो लोग उनसे ठिठोली करने लगते।… यह भी है कि वह यहाँ अपने मन का कुछ औघड़ी प्रसादी खा-पी नहीं पा रहे, इसलिए भी वह क़ैदी बने हुए हैं।”

“आप अगर अनुमति दें मैं उन्हें अपने घर ले जाऊँ?”

“सहर्ष।” प्रसाद ने छूटते ही कहा, “अगर आप ऐसा कर सकें तो निराला जी को भी क़ैद से मुक्ति का ही सुख मिलेगा। आपके यहाँ रहने पर वह नियमित घाट पर भी पहुँच सकेंगे और गंगस्नान के संग-संग अपना मनचाहा तरंगस्नान भी कर सकेंगे।”

वह झेंप गए। प्रसाद के चेहरे पर बँधी हुई मुस्कान आयी और बिना खुले चली गई।

ममता कालिया की किताब 'जीते जी इलाहबाद' का किताब अंश

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