‘Katte Van’, a poem by Preeti Karn

किसी दिन रूठ जाएगी कविता
जब कट जाऐंगे सड़क के
दोनों ओर लगे वृक्ष।
छाँव को तरसते पथिक
निहारेंगे याचना के अग्नि पथ
तप्त किरणें कोलतार की सड़कों के
साथ मिलकर लिखेंगी
अंगार गाथाएँ!
घोंसले टिकाने के लिए
नहीं बची होगी
कोई झुकी हरी भरी डाल
सारे पंछी
धर लेंगे दूसरी राह
कर लेंगे रुख
पूरब की ओर
लौट जाऐंगे
‘सब’
सुंदर वन!
फिर नहीं कूकेगी
कोई कोयल…
मौन हो जाएगी कविता!!

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कविताएँ नहीं लिखती कलात्मकता से जीवन में रचे बसे रंग उकेर लेती हूं भाव तूलिका से। कुछ प्रकृति के मोहपाश की अभिव्यंजनाएं।

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