कौन आज़ाद हुआ?
किसके माथे से ग़ुलामी की सियाही छूटी?
मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का
मदर-ए-हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही
ख़ंजर आज़ाद हैं सीनों में उतरने के लिए
मौत आज़ाद है लाशों पे गुज़रने के लिए
चोर-बाज़ारों में बदशक्ल चुड़ैलों की तरह
क़ीमतें काली दुकानों पे खड़ी रहती हैं
हर ख़रीदार की जेबों को कतरने के लिए
कारख़ानों पे लगा रहता है
साँस लेती हुई लाशों का हुजूम
बीच में उनके फिरा करती है बेकारी भी
अपना ख़ूँ-ख़्वार दहन खोले हुए
और सोने के चमकते सिक्के
डंक उठाए हुए फन फैलाए
रूह और दिल पे चला करते हैं
मुल्क और क़ौम को दिन-रात डसा करते हैं
रोटियाँ चकलों की क़हबाएँ हैं
जिनको सरमाया के दल्लालों ने
नफ़ाख़ोरी के झरोखों में सजा रखा है
बालियाँ धान की गेहूँ के सुनहरे ख़ोशे
मिस्र ओ यूनान के मजबूर ग़ुलामों की तरह
अजनबी देस के बाज़ारों में बिक जाते हैं
और बदबख़्त किसानों की बिलखती हुई रूह
अपने अफ़्लास में मुँह ढाँप के सो जाती है
हम कहाँ जाएँ, कहें किससे कि नादार हैं हम
किसको समझाएँ ग़ुलामी के गुनहगार हैं हम
तौक़ ख़ुद हम ने पहना रक्खा है अरमानों को
अपने सीने में जकड़ रक्खा तूफ़ानों को
अब भी ज़िंदान-ए-ग़ुलामी से निकल सकते हैं
अपनी तक़दीर को हम आप बदल सकते हैं!
रमेश रंजक की कविता 'हड़ताल का गीत'