नहीं है तुम्हारी देह में
यह रुधिर जिसके वर्ण में
अब ढल रही है दिवा
और अँधेरा सालता है
रोज़ थोड़ी मर रही आबादियों में
रोज़ थोड़ी बढ़ रही आबादियों में
कैसे रहे तुम व्याप्त
इतनी भिनभिनाती आत्मश्लाघा को लेते आहूतियाँ
काटती प्रत्यंग और पालती अपनी जिह्वा
कि भूख को भी कोई एक चाहिए निलय
रहने को, सहने को
बोलने को, बाँटने को
दिन सवेरे काटने को
नहीं हैं प्राण तो फिर
क्यों पुकारें खोजती हैं
किस दिशा में और कितनी दूर हो तुम
किस कथा के सार में हो
किस गति में भ्रांत हो कि शांत हो
सम्बोधनों से पट रही जीवंतता के वक्र पर
और कल्प की जितनी असमांतर रेखाएँ हैं
उनके अभीष्टों पर
बैठकर परिहास करते
ओ ईश्वर!
जिस अ-युक्ति से चेतना में आ गए तुम
कहो क्या कोई उपपत्ति है
तुम्हारे होने की सार्थकताओं की?
वैसे ही किसी अतर्क और अनिष्कर्ष से
नकारता हूँ सत्ताएँ तुम्हारी
जब तक तुम हो
प्रारब्धवश क्षण-क्षण क्षीण होता जाऊँगा
ओ ईश्वर!
ठग हो या बहेलिये?
स्वयं छल हो या प्रवंचना के श्राप से हो तर
जो भी हो
नहीं चाहता तुमसे उत्तर
जैसे अब तक रहे मौन
तथावत् मौन रहो
‘कौन’ रहो।
आदर्श भूषण की कविता 'समय से मत लड़ो'