ऑल इण्डिया रेडियो, लखनऊ, से प्रसारित, 1941
मेरी सबसे पहली रचना ‘तेरा हार’ 1932 में प्रकाशित हुई थी। उसकी प्रशंसा मैंने पत्रों में पढ़ी थी और प्रसन्न हुआ था। हिन्दी पाठकों को यदि मेरी रचना का कुछ पता लगा होगा तो वह मेरी रचना से नहीं, बल्कि पत्रों की समालोचनाओं से। याद है किसी पत्र ने यह लिखा था कि यह किन्हीं ‘बच्चन’ जी की रचनाएँ हैं। सच में उस समय मेरी गिनती किन्हीं में थी। बिना पत्र-पत्रिकाओं-कवि-सम्मेलनों में नाम प्राप्त किए मैं एक पुस्तक प्रकाशित करा बैठा था।
परन्तु उस प्रकाशन के साल-भर बाद मैंने एक ऐसी रचना की कि मेरी गिनती किन्हीं में न रह गयी। यह रचना ‘मधुशाला’ थी। प्रकाशित होने के पूर्व मैंने इसको बहुत सुनाया और मधुशाला से मेरा नाम सदा के लिए सम्बद्ध हो गया। आज भी सम्भवतः मधुशाला नाम आने पर लोगों को मेरा नाम स्मरण हो आता है और मेरा नाम आने पर शायद लोगों को ‘मधुशाला’ याद हो आती है। ‘मधुशाला’ के 4 संस्करण हो चुके हैं, 7-8 वर्षों से मैं इसे भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न नगरों में सुना चुका हूँ, परन्तु आज भी लोग इसे सुनने से नहीं ऊबे, मेरी किताबों में सबसे अधिक यही प्रचलित है। कलकत्ते से लाहौर तक, शिमला से इन्दौर तक इसे सभी स्थानों पर मैंने रुचिपूर्वक सुनी जाते देखा है। कवि-सम्मेलनों में मेरे खड़े होते ही एक स्वर से लोग ‘मधुशाला-मधुशाला’ चिल्लाने लगते हैं। इधर दस वर्षों में, जहाँ तक मुझे मालूम है— ‘मधुशाला’ जैसी लोकप्रिय रचना नहीं लिखी गयी।
‘मधुशाला’ के द्वारा जो कीर्ति मुझे मिली, उसकी क़ीमत भी मुझे देनी पड़ी है। पहले तो लोगों ने इस पर व्यंग्य-काव्य लिखे। कम-से-कम 15 अन्य शालाओं के नाम से तो मैं परिचित हूँ— ताड़ीशाला, विजयाशाला, अफ़ीमशाला, गजकशाला, दही-बड़ेशाला, चर्खाशाला, अमृतशाला, कविशाला, रणशाला, आदि-आदि। स्वयं मेरे छोटे भाई ने उसकी सर्वांगपूर्ण पैरोडी ‘टी-शाला’ के नाम से लिखी। इस पर कितनी ही समालोचनाएँ भी लिखी गयीं। बड़े समालोचकों ने तो इस पर मौन ही रखना ठीक समझा। छोटों ने समालोचना के नाम पर खुल्लमखुल्ला गालियाँ देना आरम्भ किया। यदि कभी किसी ने 1934 और 1935 के साप्ताहिकों को देखा तो उसे ‘मधुशाला’ पर लिखे गए ऐसे कितने ही लेख मिलेंगे। ‘मधुशाला’ के अनुकरण पर भी कई रचनाएँ हुई। कम-से-कम तीन पुस्तकें मुझे ऐसी देखने में आयीं जिनके लेखकों ने ‘मधुशाला’ के नाम से ही अपनी रचना छपा डाली थी। मैं यह सब सुनता-देखता गया और चुप रहा। विरोधी समालोचनाओं, पैरोडियों और अनुकरण काव्यों के होते हुए भी मैं ‘मधुशाला’ सुनाता गया, लोग सुनते गए और जो न सुन सके, वह किताबें मँगवा-मँगवाकर इसका आनन्द लेते गए। मुझे अपनी विजय ही दिखायी पड़ी। मैंने ‘मधुशाला’ को सुनकर अपने प्रेमियों और अपने विरोधियों दोनों को साथ-साथ झूमते देखा है। इसमें कहाँ तक मेरी कविता सहायक थी और कहाँ तक मेरा स्वर, इसे मैं नहीं कह सकता।
कविता में रुचि उत्पन्न होने पर कवि में रुचि उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था। बच्चन कौन है? क्या करता है? उसका चरित्र कैसा है? शराब पीता है या नहीं? आदि-आदि प्रश्न लोगों के मन में उठने लगे। इस परिचय के नाम पर लोगों को कुछ भी न मिला। हिन्दी का कवि, चाहे उसकी रचना सर्वप्रथम ही क्यों न हो, अपना चित्र साथ में देने का बड़ा शौक़ीन होता है। यहाँ रचना के साथ चित्र भी न था। अब मेरे विषय में लोगों ने कल्पनाएँ आरम्भ कीं। बच्चन ख़ूब शराब पीता होगा, बिना पिये ऐसे अनुभवों को भला कौन लिख सकता है, पीते तो देखा नहीं गया, चुपके-चुपके घर के अन्दर पीता होगा। कुछ लोगों ने कहना शुरू किया, मैं बच्चन को जानता हूँ, वह बड़ा शराबी है, अपने बाप की सारी जायदाद उसने शराब में उड़ा दी, दिन-रात पिये पड़ा रहता है, उसके माँ-बाप, घरवाले उससे परेशान हैं। ऐसी कहानियाँ बनानेवालों में प्रायः वे लोग थे जिनसे मेरा परिचय भी न था। एक ऐसे कहानी बनानेवाले से मेरी भेंट भी हुई थी पर सामने आने पर उन्हें लज्जा से अपना सिर नीचा करना पड़ा। मेरे अनेक हितु, मित्रों ने ऐसी किंवदन्तियाँ सुनीं और जहाँ कर सके, उन्होंने इसका प्रतिवाद किया, पर मैंने इन कहानियों में अपनी कविता की सफलता देखी। सब होते हुए भी लोगों में मधुशाला के लिए प्यास बनी ही रही। मैं लोगों के लिए एक रहस्य बना हुआ हूँ—इसमें भी मेरा अभिमान कुछ-न-कुछ सन्तुष्ट होता रहा। नये स्थानों पर जाने पर कई व्यक्तियों ने मुझसे कहा—हम तो आपको बुज़ुर्ग-सा समझते थे, आप तो अभी बच्चन ही हैं।
आज भी लोगों के मन में यह प्रश्न है कि मेरे जीवन में शराब का क्या स्थान है? पहले तो मैं यह कह देना चाहता हूँ कि ‘मधुशाला’ के पूर्व की मेरी सारी अप्रकाशित रचना में मदिरा का नाम तक नहीं है। बाद के भी तीन संग्रह ‘मधुकलश’, ‘निशा निमन्त्रण’ और ‘एकान्त संगीत’ में मधु की चर्चा नहीं के बराबर है। मेरे उतने समय की रचनाओं में भी मधु सम्बन्धी रचनाओं का अनुपात इतना कम है कि उससे मेरे जीवन और मदिरा से कोई अनिवार्य सम्बन्ध की खोज करना व्यर्थ है। मैंने मधुपान का व्यसन डालकर उसका धर्म प्रचारित करने को मधुशाला नहीं लिखी है। लोगों के मानसिक कौतूहल को सन्तुष्ट करने को आज मैं पहली बार जनता के सामने यह बात रख रहा हूँ कि ‘मधुशाला’ लिखने के काल तक और उसके पाँच वर्ष बाद तक जबकि मैं ‘मधुशाला’ नगर-नगर में सुनाता फिरता था, मैंने मदिरा की एक बूँद भी न चखी थी, उसका रंग कैसा होता है, मुझे नहीं ज्ञात था, मैंने लोगों को शराब की बोतल खोलते और पीते भी नहीं देखा था। जब एक श्रेणी के समालोचकों ने मुझसे यह कहा था कि तुम्हारी कविता का यह प्रभाव हो रहा है कि लोगों में मदिरापान की रुचि बढ़ती जाती है तो मैंने यही उत्तर दिया था कि ‘मधुशाला’ में ऐसी बात है तो इसका असर सबसे पहले मुझ पर होना चाहिए था और जब मैं ‘मधुशाला’ लिखकर, पढ़कर, सुनाकर मदिरा की ओर आकृष्ट नहीं हुआ तो मदिरा की ओर आकृष्ट होनेवालों की कोई और कमज़ोरी होगी, मेरी ‘मधुशाला’ नहीं। मैं ऐसे लोगों से कहा करता था कि मैंने तुम्हें कविता की मदिरा दी है, मदिरा की कविता नहीं!
‘मधुशाला’ लिखने के पूर्व मैं ख़ैयाम की रुबाइयों का अनुवाद कर चुका था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ‘मधुशाला’ लिखने की प्रेरणा मुझे ख़ैयाम की रुबाइयों से ही मिली। ख़ैयाम का अनुवाद मैंने क्यों किया—इसके पीछे एक विशेष मनोवृत्ति थी। उसे समझने के लिए ख़ैयाम की भाव और विचारधारा से अपने को अवगत करना होगा। परन्तु अनुवाद करके ही वह विचारधारा सन्तुष्ट न हुई और मौलिक रुबाइयों के रूप में फूट पड़ी। ‘मधुशाला’ और उससे सम्बद्ध हाला, प्याला, मधुबाला को मैंने प्रतीक (Symbol) के रूप में प्रयोग किया है। ‘मधुशाला’ की कविता प्रतीकात्मक कविता है। उसके लिए यदि कोई वैज्ञानिक नाम दिया जा सकता था तो प्रतीकवाद हो सकता था, पर छिद्रान्वेषियों की कुरुचि और नासमझी ने उसे हालावाद का नाम दिया। कुछ पत्रों ने मुझे अन्य बाज़ियों की समता पर हाला-बाज़ लिखा था, उससे दूसरा दर्जा हालावाद का था। हिन्दी में जो चल पड़ती है, उसी का नाम गाड़ी होता है। मुझे ‘हालावाद’ का प्रवर्तक कह डाला गया। ‘हाला’ पर सर्वप्रथम जहाँ तक मुझे याद है, मैंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र लिखित कुछ दोहे किसी संकलन में पढ़े थे, उसके पश्चात सम्भवतः उर्दू कविता से प्रभावित होकर नवीन जी ने कई कविताएँ ‘साक़ी’ आदि लिखी थीं। जिन दिनों मैंने इस प्रतीक को अपनाया था, उन दिनों अन्य कई कवि इस प्रतीक का प्रयोग कर रहे थे। यदि ‘हालावाद’ के प्रवर्तक बनाने की आवश्यकता ही हो तो यह श्रेय भारतेन्दुजी को देना चाहिए। पोषकों में नवीन जी का नाम सर्वप्रथम है। अगर आप यह कहना चाहें कि इसका सबसे अधिक प्रचार मैंने किया तो इस नेकनामी या बदनामी को स्वीकार करने में मुझे इंकार नहीं है। यह प्रतीक हिन्दी के लिए नये ही थे। उनका पूरा-पूरा अर्थ स्पष्ट करने को यह आवश्यक था कि पहले इनका प्रयोग इनके शुद्ध स्वरूप में किया जाए। मुझे ‘मधुशाला’ में इस प्रकार का बहुत-सा कार्य करना पड़ा है। यदि कोई सज्जन ‘मधुशाला’ की कुछ रुबाइयाँ मेरे सामने लाकर पूछे कि साहब इनके अर्थ शुद्ध मदिरा-पान के सिवा और क्या हैं, तो मेरा उत्तर यही होगा कि नये प्रतीक का अर्थ व्यापक करने को इनका लिखना ज़रूरी था। जैसे-जैसे मैं मधु सम्बन्धी कविताएँ लिखता गया, मैं अधिक से अधिक अर्थों को इन प्रतीकों में भर सका— ‘प्याले का परिचय’ और ‘पाँच पुकार’ शीर्षक कविताओं में ये प्रतीक अत्यन्त परिष्कृत हो उठे हैं।
समालोचक का काम फ़ैसला देना नहीं, व्याख्या करना है, जज का नहीं, वकील का है। मैंने अपनी मनस्थिति को व्यक्त करने के लिए ‘मधुशाला’ का प्रतीक ही क्यों चुना, इसे बताना समालोचक का काम है और आज तक हिन्दी के किसी समालोचक ने इस प्रश्न पर विचार करने की कृपा नहीं की। मैंने तो बिना किसी विचार के यह प्रतीक चुन लिया था, क्योंकि यही मेरी उस समय की मनोदशा को व्यक्त करने को पूर्णतया उपयुक्त था। ठीक कहूँ तो मैंने इसे नहीं चुना, उसने मुझे चुन लिया था, मुझ पर जादू-सा कर दिया था, मैं कोई दूसरा प्रतीक चुन ही नहीं सकता था।
मैंने पीछे कहा है कि उस समय मेरे अन्य समकालीन कवि भी इन प्रतीकों का प्रयोग कर रहे थे। 5-6 वर्षों के बीच ख़ैयाम के पाँच-छः अनुवाद हुए। ‘मधुशाला’ और उससे सम्बद्ध प्रतीकों का बाहुल्य से प्रयोग हआ। इससे कुछ मेरी अकेली मनोदशा नहीं, काल के वातावरण की भी सूचना मिलती है। देश और काल कुछ ऐसी मानसिक परिस्थिति में था कि कवियों ने उस प्रतीक के द्वारा ही अपने विचार कहे और लोगों ने समझे। जो समालोचक समय की इस नब्ज़ को पकड़ सकेगा, वही इन कविताओं के मर्म को समझ सकेगा, फ़तवा देनेवाला और गाली सुनानेवाला नहीं।
अब आपका अधिक समय न लेकर मैं ‘मधुशाला’ की कुछ रुबाइयाँ सुनाऊँगा। मुझे आशा है कि मेरी इस वार्ता के नये प्रकाश में ‘मधुशाला’ कुछ नया रंग दिखाएगी।
हरिवंशराय बच्चन की कविता 'इस पार, उस पार'