‘Kavita Aur Lathi’, Hindi Kavita by Ramashankar Yadav Vidrohi

तुम मुझसे
हाले-दिल न पूछो ऐ दोस्त!
तुम मुझसे सीधे-सीधे तबियत की बात कहो।
और तबियत तो इस समय ये कह रही है कि
मौत के मुँह में लाठी ढकेल दूँ,
या चींटी के मुँह में आटा गेर दूँ।
और आप—आपका मुँह,
क्या चाहता है आली जनाब!
ज़ाहिर है कि आप भूखे नहीं हैं,
आपको लाठी ही चाहिए,
तो क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते हैं?
मेरी कविता वस्तुतः
लाठी ही है,
इसे लो और भाँजो!
मगर ठहरो!
ये वो लाठी नहीं है जो
हर तरफ़ भँज जाती है,
ये सिर्फ़ उस तरफ़ भँजती है
जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूँ।
मसलन तुम इसे बड़ों के ख़िलाफ़ भाँजोगे,
भँज जाएगी।
छोटों के ख़िलाफ़ भाँजोगे,
न,
नहीं भँजेगी।
तुम इसे भगवान के ख़िलाफ़ भाँजोगे,
भँज जाएगी।
लेकिन तुम इसे इंसान के ख़िलाफ़ भाँजोगे,
न,
नहीं भँजेगी।
कविता और लाठी में यही अन्तर है।

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