कविताएँ
मौन खड़ी हैं
एक क़तार में
और पूछ रही हैं
मुझसे
तुमने तो लिखी थीं
कविताएँ
जिनमें
नहीं थीं
शब्दों की कोई बंदिशें
समय की कोई सीमाएँ
और लाँघी थीं हमने
साथ वक़्त की सरहदें

उस उम्मीद के सूरज की
अन्वेषणा में जो कहा था तुमने
आँगन से दस क़दम दूर होगा

धूप जो सुबह माँ के कंधे पर बैठ आएगी
और होले-होले से जगाएगी

दरारों में उगे पीपल की छाँव में
गुज़रेंगी दुपहरें जो हमारे हिस्से
की गर्मी सोख लेगा

संध्या को लौटेंगे
अपने देश प्रवासी पक्षी

एक रात में एक
समूचा युग पार होगा

जहाँ बौद्धत्व पाकर प्रेम नहीं
प्रेम पाकर बौद्धत्व मिलेगा

कहाँ है वो सब
पूछती हैं मुझसे
क़तार में खड़ी
मौन कविताएँ

मैं आँखें मूँदकर
एक लम्बी साँस लेता हूँ
और कहता हूँ
‘वो सुबह कभी तो आएगी’

और अपनी डायरी बन्द कर देता हूँ!