अब कविताई अपनी कुछ काम नहीं आती
मन की पीड़ा,
झर-झर शब्दों में झरती थी
है याद मुझे
जब पंक्ति एक
हलचल अशान्ति सब हरती थी
यह क्या से क्या हो गया
कि मेरी रचना का चातुर्य वही
अभिव्यक्ति मगर अव्यक्त मूक ही रह जाती
अब कविताई अपनी कुछ काम नहीं आती।
मंथन आकुलता हर्ष-द्वेष के भाव
कण्ठ तक आते हैं
उतरी केंचुल से शब्द व्यर्थ रह जाते हैं
कहकर जिसको यह भार घटे
वह पंक्ति नहीं अब मिल पाती
अब कविताई अपनी कुछ काम नहीं आती
है वही गगन मेघों वाला
धरती उल्लास लुटाती है
आते हैं अब भी आमन्त्रण
गन्धों के, वायु बुलाती है
कुछ मुझमें ही घट गया कहीं
कोई भी बात नहीं भाती।
अब कविताई अपनी कुछ काम नहीं आती।
कीर्ति चौधरी की कविता 'केवल एक बात'