दुआओं का जो खोइंछा तुमने
मेरे आँचल के छोर में डाला था
मैंने उन्हें एहसासों से बांध लिया है…
एक-एक दाने को बड़े सलीके से
रस्ते के लिए सहेज रखा है
चावल, दूब, हल्दी और..
इस एक रूपये के शगुन को
अंजुरी में भर माथे से लगा लिया है…
अब, आलते रचे सुर्ख पांव
चौखट पर ओझल भी हो जाएं
तो शुभ मंगल का संजोग बनकर
अपनी छाप आँगन मे छोड़ देंगे
और हां, पीछे तुम्हारी ज़मीन पर कुछ दाने
चावल के बिखरे भी मिलेंगे..
मेरी आँखे बनकर छुप जाएंगे
वो किसी कोने में,
ताकि देख सकें तुम्हें आते जाते..
तुम बस खयाल रखना अपना
साइत निकलते ही ,
हर पतरे में दिशासूल खत्म होते ही..
संसृति के इसी ठौर पे
हम यूं ही,
कई बार मिलेंगे, मिलते रहेंगे….