खोल दो खिड़की कोई
गहरी, बहुत गहरी घुटन है
दिन नहीं बीते
खिले थे बौर
पेड़ों पर जले थे
लाल पीले रंग रंगों के
दिन नहीं बीते गुदे थे
गोदने गोरे बदन पर
जागकर सोए प्रणय के
यह भरी मुट्ठी किरक की
आँख में पूरी गिरी
तुमने समेटे बोल—
गूँगी मैं हुई
हो गई क्या भूल, पूछूँ?
या कि फिर तुम ही अघाए
कुछ भी सही
जो सत्य है वह सत्य है
अब नहीं जीना मुझे
उम्मीद से उम्मीद तक
खुलकर कहो
अन्ततः यह अन्त है!

सुनीता जैन की कविता 'सौ टंच माल'

Book by Sunita Jain:

Previous articleरडयार्ड किपलिंग की कहानी ‘भविष्यवाणी’
Next articleतुम अब स्‍मृति हो
सुनीता जैन
(13 जुलाई 1940 - 11 दिसम्बर 2017)सुपरिचित कवयित्री व उपन्यासकार।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here