उनका इन्तक़ाल अचानक हुआ था।

उन दिनों अपने फ़्लैट में वे अकेले थे। बीवी बेटे के पास कनाडा गई हुई थीं। फ़्लैट में उनके अलावा बस एक नौकर था। पन्द्रह-सोलह साल का लड़का। वह उन्हें चाय-नाश्ता या खाना देकर सर्वेंट क्वार्टर में चला जाता था। ऑफ़िस से लौटने के बाद वे अपने कमरे में अकेले पड़े रहते थे। वे एक बहुत बड़े सरकारी ओहदे पर थे, जहाँ किताबों का कोई काम नहीं था, मगर उनके कमरे में किताबें भरी हुई थीं। वे क्लासिक्स के दीवाने थे। दीवाने-मीर को सिरहाने रखते थे। कीट्स को पढ़ते-पढ़ते अभिज्ञान शाकुंतलम् का अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़ने लगते थे। हिन्दी नहीं जानते थे, मगर ख़ुद को हिन्दी का विद्वान कहते थे। सबूत देने के लिए निराला की पंक्तियाँ सुनाते थे और उनकी व्याख्या भी करते थे। कम्युनिस्ट नहीं थे, मगर कार्ल मार्क्स को अक्सर उद्धृत किया करते थे।

एक रोज़ ऑफ़िस में कई महत्त्वपूर्ण फ़ाइलों से गुज़रते हुए उन्होंने थकान का अनुभव किया और घर आ गए। उनके शोफ़र ने फ़ोन पर उनके फ़ैमिली डॉक्टर को इस बात की सूचना दे दी। डॉक्टर तत्काल उनके आवास पर पहुँचे और पाया कि उन्हें हल्का-सा बुख़ार था। मगर तमाम उपचार के बावजूद वह बुख़ार लगातार चार दिनों तक बना रहा। उनके फ़ैमिली डॉक्टर ने तय किया कि उन्हें अगले दिन अस्पताल में भर्ती कराना होगा।

उस सुबह, इसी उद्देश्य से डॉक्टर उनके आवास पर पहुँचे और उन्होंने उन्हें अपने कमरे में मृत पाया। उनके बिस्तर के पास, नीचे एक गिलास लुढ़का पड़ा था और उनका दाहिना हाथ उसी तरफ़ फैला हुआ था। नौकर से पता चला कि वह उन्हें रात में पानी देकर उस कमरे से निकल गया था।

सूरज की किरणें भले ही देर से पृथ्वी पर फैली हों, पर उनके निधन का समाचार आनन-फ़ानन में जंगल की आग की तरह चारों ओर फैल गया। लोग उनके शव को ऑफ़िस के प्रांगण में ले आए। उन्हें ख़ाली किए गए एक हॉल में, एक चौकी पर बर्फ़ की सिल्लियों के दरमियान लिटा दिया गया। बग़ल के, दो अलग-अलग कमरों में क़ुरानख़्वानी की व्यवस्था की गई। एक कमरे में मर्द और दूसरे कमरे में औरतें। आस-पास की मस्जिदों से फ़टाफ़ट क़ुरान मज़ीद के ‘पारे’ आ गए। पूरा माहौल क़ुरान मज़ीद की आयतों से गूँज उठा।

उनके पी.ए. मिस्टर आनन्द राघवन ने कनाडा फ़ोन मिलाया। उनके बेटे और उनकी बीवी को उनके इन्तक़ाल की सूचना दी। बीवी ने कहा, फ़ोन पर, कि बेटा-बहू तो नहीं आ सकेंगे, यहाँ पिकासो पर एक सेमिनार हो रहा है, जिसमें ‘मुग़लई डिश’ वाले स्टॉल की ज़िम्मेदारी इन्हीं पर है, हाँ वो आ रही हैं। मगर फ़्लाइट की टाइमिंग ऐसी है कि परसों रात से पहले पहुँच पाना नामुमकिन है। इसलिए बेहतर यही होगा—क्योंकि उधर तो गर्मी का बुरा हाल होगा—कि उन्हें आज ही दफ़ना दिया जाए। जब उनसे यह कहा गया कि कल तक आ जाइए तो जवाब मिला कि उनकी वह अँगूठी कल शाम तक मिलेगी, जिसमें ‘अम्बर’ का नग लगना है और असली अम्बर तो यूरोप के किसी समन्दर से आता है।

गर्मी का वाक़ई बहुत बुरा हाल था। बर्फ़ की सिल्लियाँ पिघल-पिघलकर नालियाँ बन जाती थीं। नयी सिल्लियों के आने में ज़रा-सी देर होती थी तो लोगों को शव से बदबू आने का अन्देशा होने लगता था। मगर वे इतने बड़े पद पर थे कि लोग उनके शव से भी भयाक्रान्त थे। कोई कुछ बोलता नहीं था, सिर्फ़ परेशान नज़र आता था। और सबसे ज़्यादा परेशान थे उनके पी.ए. मिस्टर आनन्द राघवन, जिन्हें एक मौलाना से यह मालूम हुआ था कि शव को दफ़नाने से पूर्व जनाज़े की जो नमाज़ होगी, उसके लिए ‘सर’ (अपने ऑफ़िस और पूरे विभाग में वे इसी शब्द से जाने जाते थे) के किसी सगे रिश्तेदार से अनुमति लेनी ज़रूरी है। तो, जब एक हॉल में रखी एक चौकी पर, बर्फ़ की सिल्लियों के बीच लेटा हुआ उनका जिस्म, शहर के गणमान्य लोगों द्वारा किए जा रहे अन्तिम दर्शन से रू-ब-रू था और ऑफ़िस के प्रांगण में क़ुरान मज़ीद की आयतें गूँज रही थीं, मौलवी बरकत उल्लाह के एक आसान-से सवाल ने मिस्टर आनन्द राघवन को भारी उलझन में डाल दिया। सवाल था, ” ‘सर’ की नमाज़े–जनाज़ा की इजाज़त कौन देगा?”

मिस्टर आनन्द राघवन ऑफ़िस प्रांगण के बाहर एक नक़ली झील के पास चिन्तामग्न बैठे थे। चिन्ता का कारण मौलवी बरकत उल्लाह साहब का वही सवाल था—सर की नमाज़े-जनाज़ा की इजाज़त कौन देगा? सवाल तो वाजिब था, मगर मिस्टर आनन्द राघवन को अजीब लग रहा था। कहाँ तो लोग बात-बात के लिए ‘सर’ की इजाज़त लिया करते थे और आज हालत यह है कि उनके शव को इजाज़त की ज़रूरत है। कौन देगा नमाज़े-जनाज़ा की इजाज़त।

मौलवी बरकत उल्लाह का कहना था कि कोई सगा रिश्तेदार ही इजाज़त दे सकता है। सगा रिश्तेदार? मिस्टर आनन्द राघवन कहाँ से ढूँढकर लाएँ अपने ‘सर’ का सगा रिश्तेदार? अगर किसी मन्त्री या उद्योगपति या फ़िल्म अभिनेता या किसी भी तरह की शख़्सियत की इजाज़त से काम चल जाता तो मिस्टर आनन्द राघवन कोई-न-कोई उपाय कर लेते। मगर सगा रिश्तेदार?

इस बीच कई लोगों ने इधर-उधर फ़ोन करके अपने तौर पर इस बात का पता लगाने की कोशिश की कि इस शहर में ‘सर’ का कोई सगा न सही, दूर का रिश्तेदार भी मिल जाए तो काम चला लिया जाए। कनाडा भी फ़ोन किया गया, मगर न तो उनकी बीवी को ऐसे किसी रिश्तेदार का इल्म था और न ही बेटे को। बल्कि बेटे ने यह सलाह दी कि किसी को भी रिश्तेदार बनाकर खड़ा कर दो। बदले में उसे कुछ ‘पे’ कर देना। मिस्टर आनन्द राघवन को यह बात जँची नहीं, उलटे बुरा लगा। एक दिन सभी को मरना है। मरकर भगवान के पास जाना है। वहाँ क्या मुँह दिखाएँगे? भगवान ने अगर पूछ लिया कि तुमने अपने ‘सर’ के अन्तिम संस्कार के लिए किराए का रिश्तेदार खड़ा किया था? तो? क्या जवाब देगा वह?

मिस्टर आनन्द राघवन अभी इसी उधेड़बुन में थे कि उनके ऑफ़िस का चपरासी राजाराम उनके सामने आकर खड़ा हो गया। वह तीन दिनों की छुट्टी लेकर अपने गाँव गया हुआ था, मगर टी.वी. पर ‘सर’ की मृत्यु की सूचना सुनते ही वह हाज़िर हो गया था।

“सर का एक रिश्तेदार है यहाँ। मैं जानता हूँ उसे।” चपरासी ने यह वाक्य इस तरह बोला, मानो वह इसी वाक्य को बोलने के लिए अपनी छुट्टी रद्द करके आया हो।

मिस्टर आनन्द राघवन ने उसे बिलकुल सरकारी नज़र से देखा—यह सोचते हुए कि यह तो पूरी हाइरार्की भंग हो रही है। जो काम पी.ए. नहीं कर सका, वह चपरासी करने वाला है।

“राजाराम, होश में तो हो!” मिस्टर आनन्द राघवन ने चपरासी को डाँटा, “सर की वाइफ़, उनके सन… किसी को कुछ नहीं पता, और तुम कह रहे हो कि…।”

“हाँ सर, मैं कह रहा हूँ कि मैं उनके एक रिश्तेदार को जानता हूँ। आप सर, आप भी याद कीजिए, एक नौजवान यहाँ नौकरी की तलाश में आया था और साहब ने उसे यह कहकर टाल दिया था कि बाद में आना। सर, वह नौजवान साहब की वाइफ़ की सगी बहन का बेटा था और वह इसी शहर जहाँगीराबाद इलाक़े में औरंगज़ेबनगर झुग्गी कॉलोनी में रहता है।”

मिस्टर आनन्द राघवन को सब कुछ याद आ गया। और तमाम कारें औरंगज़ेबनगर की झुग्गी कॉलोनी की तरफ़ दौड़ पड़ीं। औरंगज़ेबनगर की झुग्गी कॉलोनी में भीड़ लग गई। मीडिया की टीम पहले ही पहुँच गई थी। झुग्गी नम्बर 13। हाँ झुग्गी नम्बर 13 में ही वह नौजवान रहता था, जिसकी माँ ‘सर’ की बीवी की सगी बहन थी। उस नौजवान का नाम था असलम। असलम ही चपरासी की नौकरी के लिए उनके ऑफ़िस में गया था।

झुग्गी नम्बर 13 में असलम अपनी बीवी और अपने दो बच्चों के साथ रहता था। सरकारी गाड़ियों और मीडिया के कैमरों वग़ैरह को देखकर वहाँ सन्नाटा छा गया। मिस्टर आनन्द राघवन ने असलम से बात की।

“असलम साहब, बात ये है कि बड़ी मुश्किल से आपका पता चला कि आप हमारे ‘सर’ के सगे रिश्तेदार हैं।”

“जी…।”

“आपको तो पता होगा कि नमाज़े-जनाज़ा की इजाज़त देनी होती है… किसी सगे रिश्तेदार को…।”

“जी…।”

“आप हमारे साथ चलिए, हमारी गाड़ी में। नमाज़े-जनाज़ा की आप इजाज़त दीजिए। फिर हम यहीं आपको छोड़ जाएँगे।”

“मगर साब”, भीतर से असलम की बीवी बोली, “इनकी तबियत ठीक नहीं रहती, रस्ता चलते बेहोश हो जाते हैं…।”

“डोंट वरी, मतलब फ़िक्र न करो! वहाँ गाड़ी से ले जाएँगे और गाड़ी से ही यहाँ छोड़ देंगे। काम कुछ नहीं है, बस क़ब्रिस्तान के पास खड़ा होना है और जनाज़े की नमाज़ के लिए इजाज़त देना है। बस, मुँह से बोलना है, और कुछ नहीं।”

असलम की बीवी ख़ामोश हो गई, मगर इशारे से उसने अपने शौहर को भीतर बुलाया।

“अभी आया”, यह कहकर जब शौहर भीतर गया तो बीवी ने उसे समझाया, “बड़े आदमी हैं, सब कुछ सोच-समझकर करना। न हो तो अपने काम का दाम माँग लेना।”

“तौबा, तौबा”, असलम झुँझलाया, “इस तरह के काम का भी कोई सौदा तय करता है? वो हमारे ख़ालू हैं, उनकी मिट्टी में शामिल होने का मौक़ा मिल रहा है, हमारे लिए यही बहुत है।” और असलम बाहर आ गया।

वह आनन्द राघवन की गाड़ी में बैठ गया।

“अच्छा, मिस्टर असलम”, आनन्द राघवन ने रास्ते में उससे पूछा, “वैसे तो यह नेक काम है, तुम्हारा फ़र्ज़ भी बनता है, मगर इस काम के लिए तुम कुछ लोगे क्या?, सौ, दो सौ, पाँच सौ, या फिर हज़ार… हमारा डिपार्टमेंट तुम्हें ‘पे’ कर सकता है।”

“हुज़ूर ऐसा है कि”, असलम ने हकलाते हुए कहा, “वो तो हमारे सगे ख़ालू थे, उनके जनाज़े की नमाज़ हमारी इजाज़त से होगी। यही हमारे लिए बड़ी बात है। अब इस बात का भी हम सौदा करेंगे? नहीं हुज़ूर, ई तो हमारा फरज़ है। हाँ, बस एक इलतिज़ा है…”

“क्या?”, मिस्टर आनन्द राघवन ने गाड़ी को ब्रेक लगायी। गाड़ी झटके से रुक गई। उन्होंने असलम को घूरकर देखा।

“हुज़ूर, आप परेशान न हों”, असलम ने सहज स्वर में कहा, “हमारी बस, एक इलतिज़ा है कि सबसे पहले हमीं उन्हें मिट्टी दें…।”

मिस्टर आनन्द राघवन कुछ नहीं बोले। गाड़ी उन्होंने आगे बढ़ा दी।

‘सर’ का जनाज़ा धूमधाम से निकला और क़ब्रिस्तान के पास एक बाग़ में पहुँचकर रुक गया। लोग जनाज़े की नमाज़ के लिए खड़े हुए। मौलवी बरकत उल्लाह ने मिस्टर राघवन की ओर देखा। उन्होंने असलम को आगे कर दिया।

“हाँ तो असलम”, मौलवी साहब ने पूछा, “इजाज़त है?”

“जी, इजाज़त है।”

असलम के इतना कहते ही जनाज़े की नमाज़ शुरू हो गई। अभी जनाज़े की नमाज़ ख़त्म भी न हो पायी थी कि वहाँ काले रंग की कई बड़ी-बड़ी कारें पहुँच गईं, जिनके इंजन पर तरह-तरह के झण्डे लगे हुए थे।

“एम्बेसडर्स… एम्बेसडर्स आए हैं। बाहरी मुमालिक के।”

“हमारे प्रधानमन्त्रीजी भी आए हैं।”

“और प्रेसीडेंट भी।”

नमाज़ से फ़ारिग़ लोगों के संवाद गूँजे और पूरी फ़िज़ा एक अजीब-सी अफ़रातफ़री में डूब गई। लोग जनाज़े को उठाकर जब ताज़ा-ताज़ा खुदी हुई क़ब्र की तरफ़ बढ़े तो किसी को यह होश नहीं था कि वह इस रू-ए-ज़मीं के किस टुकड़े पर चल रहा है।

असलम का बीमार जिस्म उस हुजूम के जंगल में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा था, मगर किसी ने उसे ऐसा धक्का दिया कि वह ज़मीन पर गिर पड़ा और अन्य लोग उसके ऊपर से उझक-उझककर आगे बढ़ने लगे। असलम किसी तरह उस जंगल से बाहर आया और एक दूसरे जंगल में घुस गया। उस जंगल से निकला तो सामने तीसरा जंगल था। यानी बस स्टॉप के सामने झुग्गियों की वह बस्ती, जहाँ उसकी बीवी इस इन्तज़ार में थी कि उसके शौहर फिर उसी शानदार गाड़ी में लौटेंगे।

असलम बिस्तर पर पड़े थे। बीवी कुछ पूछने की कोशिश करती तो बिगड़ जाते थे। खाने को पूछा तो और बिगड़ गए।

“हमारे ख़ालू नहीं रहे अउर तुम खाने को कहती हो? आख़िर वो ख़ून थे हमारे।”

बीवी ख़ामोश हो गई। बच्चों को खिलाकर सुला दिया और ख़ुद भी लेट गई।

अचानक देर रात असलम के बड़बड़ाने की आवाज़ आयी।

“ए पप्पू की अम्माँ! यहाँ तो आओ!”

असलम की बीवी उठकर शौहर के पास आयी।

“वो देखो, देखो देखो, हेलीकाप्टर खड़ा है। वो देखो, हमारा ख़ालूज़ाद भाई आया हुआ है कनाडा से, देखो तो, क्या-क्या लाया है हमारे लिए? कपड़े, खाने की चीज़ें, मकान बनाने के लिए बनी-बनायी दीवारें, छत, छत पर रखने के लिए गमले… और… और वो देखो, उसके हाथ में एक काग़ज़ भी है। ख़ालू मजबूर थे न, यहाँ हमें नौकरी नहीं दिला पाए, मगर वो लाया है हमारी नौकरी का काग़ज़। अब तुम बनोगी रानी, हम बनेंगे राजा। और राज करेगी हमारी औलाद। हमारी ये झुग्गी-बस्ती, हमारा सारा गाँव, हमारी सारी दुनिया…!”

असलम की वह आवाज़ सिर्फ़ झुग्गी नम्बर 13 में नहीं बल्कि पूरी झुग्गी-बस्ती में गूँज उठी और रात के उस अन्तिम पहर में झुग्गी-बस्ती के तमाम लोग असलम की झुग्गी के बाहर जमा हो गए।

“असलम क्या पागल हो गया है?” किसी ने कहा तो असलम की बीवी को होश आया। बोली, “पता नहीं, शाम को क़ब्रिस्तान से लौटे हैं।”

“ज़रूर क़ब्रिस्तान में ही किसी आसेब का साया पड़ा होगा”, किसी ने कहा।

“वो देखो, लाल… खून…”, असलम की आवाज़ आयी, “हमारे ख़ालूज़ाद भाई लाल, एकदम ख़ून के रंग का सूट पहने हुए हैं। आओ भाई, गले तो मिल लो…।”

और देखा गया कि असलम के मुँह से जो ख़ून निकला, वह उसके पूरे जिस्म पर फैल गया। फिर कहीं से कोई आवाज़ नहीं आयी।

साभार: किताब: मेरी प्रिय कहानियाँ | लेखक: अब्दुल बिस्मिल्लाह | प्रकाशक: राजपाल एण्ड संस

अब्दुल बिस्मिल्लाह की कविता 'ख़रगोश और चीते की तलाश'

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अब्दुल बिस्मिल्लाह
अब्दुल बिस्मिल्लाह (जन्म- 5 जुलाई 1949) हिन्दी साहित्य जगत के प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं। ग्रामीण जीवन व मुस्लिम समाज के संघर्ष, संवेदनाएं, यातनाएं और अन्तर्द्वंद उनकी रचनाओं के मुख्य केन्द्र बिन्दु हैं। उनकी पहली रचना ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ हिन्दी कथा साहित्य की एक मील का पत्थर मानी जाती है। उन्होंने उपन्यास के साथ ही कहानी, कविता, नाटक जैसी सृजनात्मक विधाओं के अलावा आलोचना भी लिखी है।