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बाबू कुन्दनलाल कचहरी से लौटे तो देखा कि उनकी पत्नीजी एक कुँजड़िन से कुछ साग-भाजी ले रही हैं। कुँजड़िन पालक टके सेर कहती है, वह डेढ़ पैसे दे रही हैं। इस पर कई मिनट तक विवाद होता रहा। आख़िर कुँजड़िन डेढ़ ही पैसे पर राज़ी हो गई। अब तराजू और बाट का प्रश्न छिड़ा। दोनों पल्ले बराबर न थे। एक में पसंगा था। बाट भी पूरे न उतरते थे। पड़ोसिन के घर से सेर आया। साग तुल जाने के बाद अब घाते का प्रश्न उठा। पत्नीजी और माँगती थीं, कुँजड़िन कहती थी, “अब क्या सेर-दो-सेर घाते में ही ले लोगी बहूजी।”

ख़ैर, आधा घण्टे में वह सौदा पूरा हुआ, और कुँजड़िन फिर कभी न आने की धमकी देकर विदा हुई। कुन्दनलाल खड़े-खड़े यह तमाशा देखते रहे। कुँजड़िन के जाने के बाद पत्नीजी लोटे का पानी लायीं तो आपने कहा, “आज तो तुमने ज़रा-सा साग लेने में पूरा आधा घण्टा लगा दिया। इतनी देर में तो हज़ार-पाँच का सौदा हो जाता। ज़रा-ज़रा से साग के लिए इतनी ठॉय-ठॉय करने से तुम्हारा सिर भी नहीं दुखता?”

रामेश्वरी ने कुछ लज्जित होकर कहा, “पैसे मुफ़्त में तो नहीं आते!”

“यह ठीक है लेकिन समय का भी कुछ मूल्य है। इतनी देर में तुमने बड़ी मुश्किल से एक धेले की बचत की। कुँजड़िन ने भी दिल में कहा होगा कहाँ की गँवारिन है। अब शायद भूलकर भी इधर न आए।”

“तो फिर मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि पैसे की जगह धेले का सौदा लेकर बैठ जाऊँ।”

“इतनी देर में तो तुमने कम-से-कम दस पन्ने पढ़े होते। कल महरी से घण्टों सिर मारा। परसों दूधवाले के साथ घण्टों शास्त्रार्थ किया। ज़िन्दगी क्या इन्हीं बातों में ख़र्च करने को दी गई है?”

कुन्दनलाल प्राय: नित्य ही पत्नी को सदुपदेश देते रहते थे। यह उनका दूसरा विवाह था। रामेश्वरी को आए अभी दो ही तीन महीने हुए थे। अब तक तो बड़ी ननदजी ऊपर के काम किया करती थीं। रामेश्वरी की उनसे न पटी। उसको मालूम होता था, यह मेरा सर्वस्व ही लुटाए देती हैं। आख़िर वह चली गईं। तब से रामेश्वरी ही घर की स्वामिनी है; वह बहुत चाहती है कि पति को प्रसन्न रखे। उनके इशारों पर चलती है; एक बार जो बात सुन लेती है, गाँठ बाँध लेती है। पर रोज़ ही तो कोई नयी बात हो जाती है, और कुन्दनलाल को उसे उपदेश देने का अवसर मिल जाता है।

एक दिन बिल्ली दूध पी गई। रामेश्वरी दूध गर्म करके लायी और स्वामी के सिरहाने रखकर पान बना रही थी कि बिल्ली ने दूध पर अपना ईश्वरप्रदत्त अधिकार सिद्ध कर दिया। रामेश्वरी यह अपहरण स्वीकार न कर सकी। रूल लेकर बिल्ली को इतने ज़ोर से मारा कि वह दो-तीन लुढ़कियाँ खा गई। कुन्दनलाल लेटे-लेटे अख़बार पढ़ रहे थे। बोले, “और जो मर जाती?”

रामेश्वरी ने ढिठाई के साथ कहा, “तो मेरा दूध क्यों पी गई?”

“उसे मारने से दूध मिल तो नहीं गया?”

“जब कोई नुक़सान कर देता है, तो उस पर क्रोध आता ही है।”

“न आना चाहिए। पशु के साथ आदमी भी क्यों पशु हो जाए? आदमी और पशु में इसके सिवा और क्या अन्तर है?”

कुन्दनलाल कई मिनट तक दया, विवेक और शान्ति की शिक्षा देते रहे। यहाँ तक कि बेचारी रामेश्वरी मारे ग्लानि के रो पड़ी।

इसी भाँति एक दिन रामेश्वरी ने एक भिक्षुक को दुत्कार दिया, तो बाबू साहब ने फिर उपदेश देना शुरू किया। बोले तुमसे न उठा जाता हो, तो लाओ मैं दे आऊँ। ग़रीब को यों न दुत्कारना चाहिए।

रामेश्वरी ने त्योरियाँ चढ़ाते हुए कहा, “दिन भर तो ताँता लगा रहता है। कोई कहाँ तक दौड़े। सारा देश भिखमंगों ही से भर गया है शायद।”

कुन्दनलाल ने उपेक्षा के भाव से मुस्कराकर कहा, “उसी देश में तो तुम भी बसती हो!”

“इतने भिखमंगे आ कहाँ से जाते हैं? ये सब काम क्यों नहीं करते?”

“कोई आदमी इतना नीच नहीं होता, जो काम मिलने पर भीख माँगे। हाँ, अपंग हो, तो दूसरी बात है। अपंगों का भीख के सिवा और क्या सहारा हो सकता है?”

“सरकार इनके लिए अनाथालय क्यों नहीं खुलवाती?”

“जब स्वराज्य हो जाएगा, तब शायद खुल जाएँ; अभी तो कोई आशा नहीं है मगर स्वराज्य भी धर्म ही से आएगा।”

“लाखों साधु-संन्यासी, पण्डे-पुजारी मुफ़्त का माल उड़ाते हैं, क्या इतना धर्म काफ़ी नहीं है? अगर इस धर्म में से स्वराज्य मिलता, तो कब का मिल चुका होता।”

“इसी धर्म का प्रसाद है कि हिन्दू-जाति अभी तक जीवित है, नहीं कब की रसातल पहुँच चुकी होती। रोम, यूनान, ईरान, सीरिया किसी का अब निशान भी नहीं है। यह हिन्दू-जाति है, जो अभी तक समय के क्रूर आघातों का सामना करती चली जाती है।”

“आप समझते होंगे; हिन्दू-जाति जीवित है। मैं तो उसे उसी दिन से मरा हुआ समझती हूँ, जिस दिन से वह अधीन हो गई। जीवन स्वाधीनता का नाम है, ग़ुलामी तो मौत है।”

कुन्दनलाल ने युवती को चकित नेत्रों से देखा, ऐसे विद्रोही विचार उसमें कहाँ से आ गए? देखने में तो वह बिलकुल भोली थी। समझे, कहीं सुन-सुना लिया होगा। कठोर होकर बोले, “क्या व्यर्थ का विवाद करती हो। लजाती तो नहीं, ऊपर से और बक-बक करती हो।”

रामेश्वरी यह फटकार पाकर चुप हो गई। एक क्षण वहाँ खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे कमरे से चली गई।

एक दिन कुन्दनलाल ने कई मित्रों की दावत की। रामेश्वरी सवेरे से रसोई में घुसी तो शाम तक सिर न उठा सकी। उसे यह बेगार बुरी मालूम हो रही थी। अगर दोस्तों की दावत करनी थी तो खाना बनवाने का कोई प्रबन्ध क्यों नहीं किया? सारा बोझ उसी के सिर क्यों डाल दिया! उससे एक बार पूछ तो लिया होता कि दावत करूँ या न करूँ। होता तब भी यही; जो अब हो रहा था। वह दावत के प्रस्ताव का बड़ी ख़ुशी से अनुमोदन करती, तब वह समझती, दावत मैं कर रही हूँ। अब वह समझ रही थी, मुझसे बेगार ली जा रही है।

ख़ैर, भोजन तैयार हुआ, लोगों ने भोजन किया और चले गए, मगर मुंशीजी मुँह फुलाए बैठे हुए थे। रामेश्वरी ने कहा, “तुम क्यों नहीं खा लेते, क्या अभी सवेरा है?”

बाबू साहब ने आँखें फाड़कर कहा, “क्या खा लूँ, यह खाना है, या बैलों की सानी!”

रामेश्वरी के सिर से पाँव तक आग लग गई। सारा दिन चूल्हे के सामने जली; उसका यह पुरस्कार! बोली, “मुझसे जैसा हो सका बनाया। जो बात अपने बस की नहीं है, उसके लिए क्या करती?”

“पूड़ियाँ सब सेवर हैं!”

“होंगी।”

“कचौड़ी में इतना नमक था किसी ने छुआ तक नहीं।”

“होगा।”

“हलुआ अच्छी तरह भुना नहीं, कचाइयाँ आ रही थीं।”

“आती होंगी।”

“शोरबा इतना पतला था, जैसे चाय।”

“होगा।”

“स्त्री का पहला धर्म यह है कि वह रसोई के काम में चतुर हो।”

फिर उपदेशों का तार बँधा; यहाँ तक कि रामेश्वरी ऊब कर चली गई!

पाँच-छः महीने गुज़र गए। एक दिन कुन्दनलाल के एक दूर के सम्बन्धी उनसे मिलने आए। रामेश्वरी को ज्यों ही उनकी ख़बर मिली, जलपान के लिए मिठाई भेजी और महरी से कहला भेजा आज यहीं भोजन कीजिएगा। वह महाशय फूले न समाए। बोरिया-बँधना लेकर पहुँच गये और डेरा डाल दिया। एक हफ़्ता गुज़र गया; आप टलने का नाम भी नहीं लेते। आवभगत में कोई कमी होती, तो शायद उन्हें कुछ चिन्ता होती; पर रामेश्वरी उनके सेवा-सत्कार में जी-जान से लगी हुई थी। फिर वह भला क्यों हटने लगे। एक दिन कुन्दनलाल ने कहा, “तुमने यह बुरा रोग पाला।”

रामेश्वरी ने चौंककर पूछा, “कैसा रोग?”

“इन्हें टहला क्यों नहीं देतीं?”

“मेरा क्या बिगाड़ रहे हैं?”

“कम-से-कम दस की रोज़ चपत दे रहे हैं। और अगर यही ख़ातिरदारी रही, तो शायद जीते-जी टलेंगे भी नहीं।”

“मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि कोई दो-चार दिन के लिए आ जाए, तो उसके सिर हो जाऊँ। जब तक उनकी इच्छा हो, रहें।”

“ऐसे मुफ़्तखोरों का सत्कार करना पाप है। अगर तुमने इतना सिर न चढ़ाया होता, तो अब तक लम्बा हुआ होता। जब दिन में तीन बार भोजन और पचासों बार पान मिलता है, तो उसे कुत्ते ने काटा है, जो अपने घर जाए।”

“रोटी का चोर बनना तो अच्छा नहीं!”

“कुपात्र और सुपात्र का विचार तो कर लेना चाहिए। ऐसे आलसियों को खिलाना-पिलाना वास्तव में उन्हें ज़हर देना है, ज़हर से तो केवल प्राण निकल जाते हैं; यह ख़ातिरदारी तो आत्मा का सर्वनाश कर देती है। अगर यह हज़रत महीने-भर भी यहाँ रह गए, तो फिर ज़िन्दगी-भर के लिए बेकार हो जाएँगे। फिर इनसे कुछ न होगा और इसका सारा दोष तुम्हारे सिर होगा।”

तर्क का ताँता बँध गया। प्रमाणों की झड़ी लग गई। रामेश्वरी खिसियाकर चली गई। कुन्दनलाल उससे कभी सन्तुष्ट भी हो सकते हैं, उनके उपदेशों की वर्षा कभी बन्द भी हो सकती है, यह प्रश्न उसके मन में बार-बार उठने लगा।

एक दिन देहात से भैंस का ताजा घी आया। इधर महीनों से बाज़ार का घी खाते-खाते नाक में दम हो रहा था। रामेश्वरी ने उसे खौलाया, उसमें लौंग डाली और कड़ाह से निकालकर एक मटकी में रख दिया। उसकी सोंधी-सोंधी सुगन्ध से सारा घर महक रहा था। महरी चौका-बर्तन करने आयी तो उसने चाहा कि मटकी चौके से उठाकर छींके या आले पर रख दे। पर संयोग की बात, उसने मटकी उठायी तो वह उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ी। सारा घी बह गया। धमाका सुनकर रामेश्वरी दौड़ी, तो महरी खड़ी रो रही थी और मटकी चूर-चूर हो गई थी। तड़पकर बोली, “मटकी कैसे टूट गई? मैं तेरी तलब से काट लूँगी। राम-राम, सारा घी मिट्टी में मिला दिया! तेरी आँखें फूट गई थीं क्या? या हाथों में दम नहीं था? इतनी दूर से मँगाया, इतनी मिहनत से गर्म किया; मगर एक बूँद भी गले के नीचे न गया। अब खड़ी बिसूर क्या रही है, जा अपना काम कर।”

महरी ने आँसू पोंछकर कहा, “बहूजी, अब तो चूक हो गई, चाहे तलब काटो, चाहे जान मारो। मैंने तो सोचा उठाकर आले पर रख दूँ, तो चौका लगाऊँ। क्या जानती थी कि भाग्य में यह लिखा है। न-जाने किसका मुँह देखकर उठी थी।”

रामेश्वरी – “मैं कुछ नहीं जानती, सब रुपये तेरी तलब से वसूल कर लूँगी। एक रुपया जुरमाना न किया तो कहना।”

महरी – “मर जाऊँगी सरकार, कहीं एक पैसे का ठिकाना नहीं है।”

रामेश्वरी – “मर जा या जी जा, मैं कुछ नहीं जानती।”

महरी ने एक मिनट तक कुछ सोचा और बोली, “अच्छा, काट लीजिएगा सरकार। आपसे सबर नहीं होता; मैं सबर कर लूँगी। यही न होगा, भूखों मर जाऊँगी। जीकर ही कौन-सा सुख भोग रही हूँ कि मरने को डरूँ। समझ लूँगी; एक महीना कोई काम नहीं किया। आदमी से बड़ा-बड़ा नुक़सान हो जाता है, यह तो घी ही था।”

रामेश्वरी को एक ही क्षण में महरी पर दया आ गई! बोली, “तू भूखों मर जाएगी, तो मेरा काम कौन करेगा?”

महरी – “काम कराना होगा, खिलाइएगा; न काम कराना होगा, भूखों मारिएगा। आज से आकर आप ही के द्वार पर सोया करूँगी।”

रामेश्वरी – “सच कहती हूँ, आज तूने बड़ा नुक़सान कर डाला।”

महरी – “मैं तो आप ही पछता रही हूँ सरकार।”

रामेश्वरी – “जा गोबर से चौका लीप दे, मटकी के टुकड़े दूर फेंक दे और बाज़ार से घी लेती आ।”

महरी ने ख़ुश होकर चौका गोबर से लीपा और मटकी के टुकड़े बटोर रही थी कि कुन्दनलाल आ गए, और हाण्डी टूटी देखकर बोले, “यह हाण्डी कैसे टूट गई?”

रामेश्वरी ने कहा, “महरी उठाकर ऊपर रख रही थी, उसके हाथ से छूट पड़ी।”

कुन्दनलाल ने चिल्लाकर कहा, “तो सब घी बह गया?”

“और क्या कुछ बच भी रहा!”

“तुमने महरी से कुछ कहा, नहीं?”

“क्या कहती? उसने जान-बूझकर तो गिरा नहीं दिया।”

“यह नुक़सान कौन उठायेगा?”

“हम उठाएँगे, और कौन उठाएगा। अगर मेरे ही हाथ से छूट पड़ती तो क्या हाथ काट लेती।”

कुन्दनलाल ने ओंठ चबाकर कहा, “तुम्हारी कोई बात मेरी समझ में नहीं आती। जिसने नुक़सान किया है, उससे वसूल होना चाहिए। यही ईश्वरीय नियम है। आँख की जगह आँख, प्राण के बदले प्राण, यह ईसामसीह जैसे दयालु पुरुष का कथन है। अगर दण्ड का विधान संसार से उठ जाए, तो यहाँ रहे कौन? सारी पृथ्वी रक्त से लाल हो जाए, हत्यारे दिन-दहाड़े लोगों का गला काटने लगें। दण्ड ही से समाज की मर्यादा क़ायम है। जिस दिन दण्ड न रहेगा, संसार न रहेगा। मनु आदि स्मृतिकार बेवक़ूफ़ नहीं थे कि दण्ड-न्याय को इतना महत्त्व दे गये। और किसी विचार से नहीं, तो मर्यादा की रक्षा के लिए दण्ड अवश्य देना चाहिए। ये रुपये महरी को देने पड़ेंगे। उसकी मज़दूरी काटनी पड़ेगी। नहीं तो आज उसने घी का घड़ा लुढ़का दिया है, कल कोई और नुक़सान कर देगी।”

रामेश्वरी ने डरते-डरते कहा, “मैंने तो उसे क्षमा कर दिया है।”

कुन्दनलाल ने आँखें निकालकर कहा, “लेकिन मैं नहीं क्षमा कर सकता।”

महरी द्वार पर खड़ी यह विवाद सुन रही थी। जब उसने देखा कि कुन्दनलाल का क्रोध बढ़ता जाता है और मेरे कारण रामेश्वरी को घुड़कियाँ सुननी पड़ रही हैं, तो वह सामने जाकर बोली, “बाबूजी, अब तो क़सूर हो गया। अब सब रुपये मेरी तलब से काट लीजिए। रुपये नहीं हैं, नहीं तो अभी लाकर आपके हाथ पर रख देती।”

रामेश्वरी ने उसे घुड़ककर कहा, “जा भाग यहाँ से, तू क्या करने आयी। बड़ी रुपयेवाली बनी है!”

कुन्दनलाल ने पत्नी की ओर कठोर नेत्रों से देखकर कहा, “तुम क्यों उसकी वकालत कर रही हो। यह मोटी-सी बात है और इसे एक बच्चा भी समझता है कि जो नुक़सान करता है, उसे उसका दण्ड भोगना पड़ता है। मैं क्यों पाँच रुपये का नुकसान उठाऊँ? बेवजह? क्यों नहीं इसने मटके को सम्भालकर पकड़ा, क्यों इतनी जल्दबाज़ी की, क्यों तुम्हें बुलाकर मदद नहीं ली? यह साफ़ इसकी लापरवाही है।” यह कहते हुए कुन्दनलाल बाहर चले गए।

रामेश्वरी इस अपमान से आहत हो उठी। डाँटना ही था, तो कमरे में बुलाकर एकान्त में डाँटते। महरी के सामने उसे रुई की तरह धुन डाला। उसकी समझ ही में न आता था, यह किस स्वभाव के आदमी हैं। आज एक बात कहते हैं, कल उसी को काटते हैं, जैसे कोई झक्की आदमी हो। कहाँ तो दया और उदारता के अवतार बनते थे, कहाँ आज पाँच रुपये के लिए प्राण देने लगे। बड़ा मज़ा आ जाए, कल महरी बैठ रहे। कभी तो इनके मुख से प्रसन्नता का एक शब्द निकला होता! अब मुझे भी अपना स्वभाव बदलना पड़ेगा। यह सब मेरे सीधे होने का फल है। ज्यों-ज्यों मैं तरह देती हूँ, आप जामे से बाहर होते हैं। इसका इलाज यही है कि एक कहें, तो दो सुनाऊँ। आख़िर कब तक और कहाँ तक सहूँ। कोई हद भी है! जब देखो डाँट रहे हैं। जिसके मिज़ाज का कुछ पता ही न हो, उसे कौन ख़ुश रख सकता है। उस दिन ज़रा-सा बिल्ली को मार दिया, तो आप दया का उपदेश करने लगे। आज वह दया कहाँ गई। उनको ठीक करने का उपाय यही है कि समझ लूँ, कोई कुत्ता भूँक रहा है। नहीं, ऐसा क्यों करूँ। अपने मन से कोई काम ही न करूँ; जो यह कहें, वही करूँ; न जौ-भर कम, न जौ-भर ज़्यादा। जब इन्हें मेरा कोई काम पसन्द नहीं आता, मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो बरबस अपनी टाँग अड़ाऊँ। बस, यही ठीक है। वह रात-भर इसी उधेड़बुन में पड़ी रही।

सवेरे कुन्दनलाल नदी स्नान करने गए। लौटे, तो नौ बज गए थे। घर में जाकर देखा, तो चौका-बर्तन न हुआ था। प्राण सूख गये। पूछा, “क्या महरी नहीं आयी?”

रामेश्वरी – “नहीं।”

कुन्दनलाल – “तो फिर?”

रामेश्वरी – “जो आपकी आज्ञा।”

कुन्दनलाल – “यह तो बड़ी मुश्किल है।”

रामेश्वरी – “हाँ, है तो।”

कुन्दनलाल – “पड़ोस की महरी को क्यों न बुला लिया?”

रामेश्वरी – “किसके हुक्म से बुलाती; अब हुक्म हुआ है, बुलाए लेती हूँ।”

कुन्दनलाल – “अब बुलाओगी, तो खाना कब बनेगा? नौ बज गए और इतना तो तुम्हें अपनी अक़्ल से काम लेना चाहिए था कि महरी नहीं आयी तो पड़ोसवाली को बुला लें।”

रामेश्वरी – “अगर उस वक़्त सरकार पूछते, क्यों दूसरी महरी बुलायी, तो क्या जवाब देती? अपनी अक़्ल से काम लेना छोड़ दिया। अब तुम्हारी ही अक़्ल से काम लूँगी। मैं यह नहीं चाहती कि कोई मुझे आँखें दिखाए।”

कुन्दनलाल – “अच्छा, तो इस वक़्त क्या होगा?”

रामेश्वरी – “जो हुज़ूर का हुक्म हो।”

कुन्दनलाल – “तुम मुझे बनाती हो।”

रामेश्वरी – “मेरी इतनी मजाल कि आप को बनाऊँ! मैं तो हुज़ूर की लौंडी हूँ। जो कहिए, वह करूँ।”

कुन्दनलाल – “मैं तो जाता हूँ, तुम्हारा जो जी चाहे करो।”

रामेश्वरी – “जाइए, मेरा जी कुछ न चाहेगा और न कुछ करूँगी।”

कुन्दनलाल – “आख़िर तुम क्या खाओगी?”

रामेश्वरी – “जो आप देंगे, वही खा लूँगी।”

कुन्दनलाल – “लाओ, बाज़ार से पूड़ियाँ ला दूँ।”

रामेश्वरी रुपया निकाल लायी। कुन्दनलाल पूड़ियाँ लाए। इस वक़्त का काम चला। दफ़्तर गए।

लौटे, तो देर हो गयी थी। आते-ही-आते पूछा, “महरी आयी?”

रामेश्वरी – “नहीं।”

कुन्दनलाल – “मैंने तो कहा था, पड़ोसवाली को बुला लेना।”

रामेश्वरी – “बुलाया था। वह पाँच रुपये माँगती है।”

कुन्दनलाल – “तो एक ही रुपये का फ़र्क़ था, क्यों नहीं रख लिया?”

रामेश्वरी – “मुझे यह हुक्म न मिला था। मुझसे जवाब-तलब होता कि एक रुपया ज़्यादा क्यों दे दिया, ख़र्च की किफ़ायत पर उपदेश दिया जाने लगता, तो क्या करती।”

कुन्दनलाल – “तुम बिलकुल मूर्ख हो।”

रामेश्वरी – “बिलकुल।”

कुन्दनलाल – “तो इस वक़्त भी भोजन न बनेगा?”

रामेश्वरी – “मजबूरी है।”

कुन्दनलाल सिर थामकर चारपाई पर बैठ गए। यह तो नयी विपत्ति गले पड़ी। पूड़ियाँ उन्हें रुचती न थीं। जी में बहुत झुँझलाए। रामेश्वरी को दो-चार उल्टी-सीधी सुनायीं, लेकिन उसने मानो सुना ही नहीं। कुछ बस न चला, तो महरी की तलाश में निकले। जिसके यहाँ गए, मालूम हुआ, महरी काम करने चली गयी। आख़िर एक कहार मिला। उसे बुला लाए। कहार ने दो आने लिए और बर्तन धोकर चलता बना।

रामेश्वरी ने कहा, “भोजन क्या बनेगा?”

कुन्दनलाल – “रोटी-तरकारी बना लो, या इसमें कुछ आपत्ति है?”

रामेश्वरी – “तरकारी घर में नहीं है।”

कुन्दनलाल – “दिन भर बैठी रहीं, तरकारी भी न लेते बनी? अब इतनी रात गये तरकारी कहाँ मिलेगी?”

रामेश्वरी – “मुझे तरकारी ले रखने का हुक्म न मिला था। मैं पैसा-धेला ज़्यादा दे देती तो?”

कुन्दनलाल ने विवशता से दाँत पीसकर कहा, “आख़िर तुम क्या चाहती हो?”

रामेश्वरी ने शान्त भाव से जवाब दिया, “कुछ नहीं, केवल अपमान नहीं चाहती।”

कुन्दनलाल – “तुम्हारा अपमान कौन करता है?”

रामेश्वरी – “आप करते हैं।”

कुन्दनलाल – “तो मैं घर के मामले में कुछ न बोलूँ?”

रामेश्वरी – “आप न बोलेंगे, तो कौन बोलेगा? मैं तो केवल हुक्म की ताबेदार हूँ।”

रात रोटी-दाल पर कटी। दोनों आदमी लेटे। रामेश्वरी को तो तुरन्त नींद आ गयी। कुन्दनलाल बड़ी देर तक करवटें बदलते रहे। अगर रामेश्वरी इस तरह सहयोग न करेगी, तो एक दिन भी काम न चलेगा। आज ही बड़ी मुश्किल से भोजन मिला। इसकी समझ ही उलटी है। मैं तो समझाता हूँ, यह समझती है, डाँट रहा हूँ। मुझसे बिना बोले रहा भी तो नहीं जाता। लेकिन अगर बोलने का यह नतीजा है, तो फिर बोलना फ़िज़ूल है। नुक़सान होगा, बला से; यह तो न होगा कि दफ़्तर से आकर बाज़ार भागूँ। महरी से रुपये वसूल करने की बात इसे बुरी लगी और थी भी बेजा। रुपये तो न मिले, उलटे महरी ने काम छोड़ दिया।

रामेश्वरी को जगाकर बोले, “कितना सोती हो तुम?”

रामेश्वरी – “मजूरों को अच्छी नींद आती है।”

कुन्दनलाल – “चिढ़ाओ मत, महरी से रुपये न वसूल करना।”

रामेश्वरी – “वह तो लिए खड़ी है शायद।”

कुन्दनलाल – “उसे मालूम हो जाएगा, तो काम करने आएगी।”

रामेश्वरी – “अच्छी बात है कहला भेजूँगी।”

कुन्दनलाल – “आज से मैं कान पकड़ता हूँ, तुम्हारे बीच में न बोलूँगा।”

रामेश्वरी – “और जो मैं घर लुटा दूँ तो?”

कुन्दनलाल – “लुटा दो, चाहे मिटा दो, मगर रूठो मत। अगर तुम किसी बात में मेरी सलाह पूछोगी, तो दे दूँगा; वरना मुँह न खोलूँगा।”

रामेश्वरी – “मैं अपमान नहीं सह सकती।”

कुन्दनलाल – “इस भूल को क्षमा करो।”

रामेश्वरी – “सच्चे दिल से कहते हो न?”

कुन्दनलाल – “सच्चे दिल से।”

प्रेमचंद
प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव, प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया। आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी।