ख़ुद दिल में रह के आँख से पर्दा करे कोई
हाँ लुत्फ़ जब है पा के भी ढूँढा करे कोई
तुम ने तो हुक्म-ए-तर्क-ए-तमन्ना सुना दिया
किस दिल से आह तर्क-ए-तमन्ना करे कोई
दुनिया लरज़ गई दिल-ए-हिरमाँ-नसीब की
इस तरह साज़-ए-ऐश न छेड़ा करे कोई
मुझ को ये आरज़ू वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद
उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई
रंगीनी-ए-नक़ाब में गुम हो गई नज़र
क्या बे-हिजाबियों का तक़ाज़ा करे कोई
या तो किसी को जुरअत-ए-दीदार ही न हो
या फिर मेरी निगाह से देखा करे कोई
होती है इस में हुस्न की तौहीन ऐ ‘मजाज़’
इतना न अहल-ए-इश्क़ को रुस्वा करे कोई!
मजाज़ लखनवी की नज़्म 'मज़दूरों का गीत'