पलटती हूँ कभी जब
सफ़हे क़िताब के
हर्फ़ दर हर्फ़
खुलती जाती है
कायनात
और मैं
खो जाती हूँ

रोज़ शब
होता है उजाला
मेरी क़िताब के
माहताब से
अल्फ़ाज़ बना देते है
नींद का बिछौना
और अहसास की
आगोश में मैं
सो जाती हूँ

छूकर किताबों को
कर लेती हूँ सफर
जिंदगानी के जानिब
किस्मत की लकीरों पर
और तुज़ुर्बे मैं
बो आती हूँ

किताबों की गोद में
लफ़्ज़ों की जुम्बिश
बिखेरती है रेज़ा रेज़ा
मेरा जेहन
ज़हीन सी रूह मेरी
हो जाती है नादाँ
और
लम्हा दर लम्हा
मुझमें मैं
हो जाती हूँ।

?

©️ शिल्पी