तपती गर्मी की एक शांत दोपहर,
एक पागल सी हवा गलियों से गुज़री
दरवाज़े पर आई मेरे,
ज़ोर से पीटा खिड़कियों के कांच को,
जैसे तलाश रही हो कोई एक शरणस्थली।
हार चुकी हो युद्ध एक,
गर्मी के जलते सूरज से।
है साहस नहीं मुझे पर इतना,
स्वागत करूँ मैं उस पगली का।
कस दी कुण्डी और भी मैंने,
जा पहुँचा एक कोने को।
एक पुरानी किताब निकाली,
और निकल आए कुछ पंछी,
पीले पड़े पुराने कागजों से,
एक बूढ़ा पेड़ ले चला मुझे,
अपनी छाँव के ठाठों में।
कुछ नदियाँ लगी फिर बहने,
कुछ ठंडक सी आयी दिल को।
कैसा अजब जादू है ये,
पन्नों के अफसानों में।