हा हा हा हा हा हा
यह भी कैसा साल है
मैं ज़िंदा तो हूँ नहीं
पर पढ़ रहा है मुझको कोई
सोच रहा है कैसे मैंने
सोचा है तब उसको जब कि
उसका कोई अस्तित्व नहीं है
जैसे मैंने अक्सर सोचा किया है
इसी दो हज़ार बीस के ऐन मरकज़ में
कैसे सोचते होंगे भोले ऑथर
शायर मुसव्विर बावर्ची बूटनिगार
आज से सत्तर साल आगे पीछे
इसी दो हज़ार बीस के बाबत
किया तसव्वुर ए इंक़लाब था
करते रहेंगे हम भी करेंगे
भोला होना कुफ़र नहीं है

बीस तो आधा यूँ ही गल गया
कोरोना ने अधमरा किया
खेस ए मज़हब से भगवा फ़ौज ने
कम्बल कूट मचा दी बाक़ी
ख़ुदकुशी कर ली सुशांत ने यानी
सादा यूथ अब सोच में पड़ गया
करना क्या है क्यों जीना है
जीना है तो कब तक आख़िर
खेल आडम्बर ढकोसला यह

पचानवे तक अपनी पहुँच नहीं है
पता नहीं कोई हिन्दी पढ़ता है भी कि नहीं
रेवोल्यूशन ज़बान का मोहताज तो नहीं
पढ़ते हो न आयुष तुम?
पढ़ते रहना ज़रूरी होगा…
मन की क्रांति पढ़ने से ही आएगी
सुनो शांति
कोई अच्छी-सी फ़िल्म बना दो अब कि
बाईसवीं सदी चढ़ानी है तुम्हें ही
अच्छे से खाया करो धीरज, डेज़ी
स्क्रीन देखते देखते नहीं
खाना देख के
क्यों सफ़दर, शिल्पी?
नाटक तैयार है?
देखो अच्छे अच्छे कपड़े पहन के
देखने आए हैं पक्के मकानों से निकल के
मज़दूर ओ किसान ओ बुज़ुर्ग ओ जवान
बच्चे भी स्कूल से मुस्कुराते सभी के
आ गए रुक गए हैं तमाशा देखने
आज तो ग़ुस्सा नहीं करोगे?

17.06.20

सहज अज़ीज़
नज़्मों, अफ़सानों, फ़िल्मों में सच को तलाशता बशर। कला से मुहब्बत करने वाला एक छोटा सा कलाकार।