‘Kuchh Ghanishth Sambandh’, poems by Ruchi

1

कुछ घनिष्ठ सम्बन्धों में अनायास उतर आती है
शनैः शनैः अस्थायी उदासीनता,
सम्बन्धों की नीरवता चीख़ उठती है कभी-कभी,
ऊहापोह में गुज़रते हैं, उन्माद के क्षण।

झूठला कर सारे सच, खींच लेते हैं हम
आँखों पर वो झीना पर्दा जो सम्भावनाएँ बनाये रखे।
विरिक्तता के अन्तिम क्षणों में हमें भान होता है,
सहेजना ही नहीं, सहलाना भी पड़ता है
विषाक्त कोशिकाओं को हौले से।

देह देह से बातें करती है,
दुःख दुःख को देख मुस्कुराता है,
सुख सुख से खिलखिलाता है तो
अन्यमनस्कता थपथपाती हैं एक दूजे की पीठ।

सम्बन्धों की शिनाख़्त को रहते हैं उद्विग्न,
पर कोई सफलता नहीं मिलती।
स्तब्ध होते हैं हम देखकर,
ये विहंगम दृश्य सम्बन्धों का।

और फिर लौट पड़ते हैं हम निर्विकार
उन्हीं बेसाख़्ता सम्बन्धों को देने आकार।
अतृप्तता बनाये रखती है सदैव चाहत,
तृप्ति थाम लेती है अथाह पर ठौर नहीं होती।
प्रलोभन बनाये रखते हैं निरन्तरता सम्बन्धों की।

2

औरतों की पीठ पर गढ़े होते हैं
स्पर्श के अनगिनत क़िस्से।
पढ़ना कभी ग़ौर से, हौले से हाथ फिरा
हर स्पर्श की एक कहानी कहेगी वो।

पीठ पर ही लिखने की कोशिश कर रही हूँ तुम्हारा नाम,
जिस दिन लिख सकी, वो दिन हमारे प्रेम का आख़िरी दिन होगा,
भरम मत रखना मेरे दिल में होने का।

दुःखों का कूबड़ लाद रखा है पीठ पर,
ऐ मेरे ख़ुदा रहमत बख़्श,
रीढ़ विहीन सी ज़लालत न देना कभी।

खुरदुरी पीठ ने कहा मखमली अहसासों को,
जनाब ज़रा आहिस्ता, आदत नहीं, चुभते हैं।

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