पहले लोग सठिया जाते थे
अब कुर्सिया जाते हैं!

दोस्त मेरे!
भारत एक कृषि-प्रधान नहीं
कुर्सी-प्रधान देश है!

हमारे संसद-भवन के द्वार में
कुछ स्प्रिगें ही ऐसी लगी हैं
कि समाजवादी पासा फेंकनेवाले
सेठ की कार आते ही
संसद का द्वार अपने आप खुल जाता है
और, हम ग़रीबो को देख
चट बन्द हो जाता है!

दोस्त मेरे!
तुम्हारा और मेरा ही नहीं
कार और द्वार का भी अन्तरात्मी नाता है!

उधर सचिवालय की नाक के नीचे
फटे तम्बुओं में लगनेवाले स्कूलों में
जो बच्चे मिमिया रहे हैं
वे देश का भविष्य बना रहे हैं!

नौजवानों को
बूढ़ा कर देनेवाले ये विश्वविद्यालय
जो कभी बुद्धिजीवी तैयार करते थे
अब स्पंजनुमा डिग्रीजीवी बना रहे हैं
जो बीज की तरह
न गल सकते हैं
न फल सकते हैं
महज़ पानी उगल सकते हैं
वह जो इन्होंने सोखा था
जैसा का तैसा
दुनिया में माई-बाप अब तो है पैसा!

तभी देखो ना
द्रोणाचार्य, अब अँगूठा नहीं
चैक कटाते हैं
ख़तरा होने पर कैश मँगाते हैं!

उधर दफ़्तरों में
कुछ हवा ही ऐसी चल रही है
कि बिना पेपरवेट रक्खे
काग़ज़ तो काग़ज़
फ़ाइलें तक उड़ जाती हैं
पर, ‘ऑफ़िशिअल वेइंग मशीनों’ में
सिक्के डालते ही
फ़ौरन निकल आती हैं!

‘श्याम धन’ को पाकर
गोपियाँ जितनी ख़ुश होती थीं
उससे ज़्यादा तो आज
सफ़ेद टोपियाँ ख़ुश हो रही हैं!

दोस्त मेरे!
भक्तिकाल कभी ख़त्म नहीं होता
उसकी तो मात्र पुनरावृत्ति होती है!

प्रेम करने की
एक उम्र होती होगी,
चापलूसी करने की
कोई उम्र नहीं होती!

तभी देखो ना
पुजारीजी अपने बेटे की नौकरी ख़ातिर
मन्दिर में नहीं,
एम. पी. क्वार्टर्स में प्रसाद चढ़ा रहे हैं!
और मुल्लाजी मस्जिद में नहीं,
मिनिस्टर के बँगले दुआ माँग रहे हैं!
और हंस
जो कभी मोती चुगते थे
या भूखे मर जाते थे
अब चाँदी की गोल-गोल चवन्नियाँ चुगने लगे हैं
शायद चवन्नी-सदस्यता
जीने का अनिवार्य साधन बन गयी है!

और इधर
कुछ तथाकथित क्रान्तिकारी
हँसिये पर से हथौड़ा हटाकर
चमचा रख रहे हैं!
और हम सब
समाजवादी स्वाद चख रहे हैं!

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