ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख़्शा गया जिनको ज़ौक़-ए-गदाई
ज़माने की फटकार सरमाया इनका
जहाँ-भर की दुत्कार इनकी कमाई
न आराम शब को, न राहत सवेरे
ग़लाज़त में घर, नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो इक-दूसरे को लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाक़ों से उकता के मर जाने वाले
मज़लूम मख़्लूक़ गर सर उठाए
तो इंसान सब सर-कशी भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आक़ाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इन को एहसास-ए-ज़िल्लत दिला दे
कोई इन की सोई हुई दुम हिला दे!

Book by Faiz Ahmad Faiz:

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (जन्म: 13 फ़रवरी, 1911; मृत्यु: 20 नवम्बर, 1984) प्रसिद्ध शायर थे, जिनको अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव (इंक़लाबी और रूमानी) के मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्म, ग़ज़ल लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था।