क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए?
एक तकिया
कि कहीं से थका-मांदा आया और सिर टिका दिया
कोई खूँटी
कि ऊब, उदासी, थकान से भरी कमीज़ उतारकर टाँग दी
या आँगन में तनी अरगनी
कि कपड़े लाद दिए,
घर
कि सुबह निकला और शाम लौट आया,
कोई डायरी
कि जब चाहा कुछ न कुछ लिख दिया
या ख़ामोशी-भरी दीवार
कि जब चाहा वहाँ कील ठोक दी,
कोई गेंद
कि जब तब जैसे चाहा उछाल दी,
या कोई चादर
कि जब जहाँ जैसे तैसे ओढ़-बिछा ली
क्यूँ? कहो, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए?
'उतनी दूर मत ब्याहना बाबा'