हमारे देश में लाठियाँ कब आयीं
यह उचित प्रश्न नहीं
कहाँ से आयीं
यह भी बेहूदगी भरा सवाल होगा
लाठियाँ कैसे चलीं
कहाँ चलीं
कहाँ से कहाँ तक चलीं
क्या पाया लाठियों ने
किसने चलायीं लाठियाँ
कौन लाठियों के बल चला
ऐसे सवाल पूछे जाएँ तो बात बने
लाला लाठी खाकर शहीद हो गए
लाठी भी कोई खाने की चीज़ होती है क्या?
आज़ादी पाने के दौरान एक दौर ऐसा भी था
जब एक लाठी कलकत्ता से चम्पारण पहुँच गई थी
सत्ता की क्रूर नीतियों के ख़िलाफ़ खड़ा होने
नीलिया किसानों के साथ
वही लाठी उसी बूढ़े धोतीधारी का हाथ पकड़े
उसे साबरमती से दांडी तक पैदल ले गई
उनके परलोक सिधारने के बाद
उनकी लाठी का चलने के लिए उपयोग कम
भाँजने के लिए ज़्यादा होता आया है
कई संस्थाओं में लाठीधारी देशभक्तों के
प्रशिक्षण की व्यवस्था है
लाठियों से न साम्यवाद आने को है
न ही समाजवाद
न ही लाठियाँ घुमाकर राष्ट्रवाद का प्रशस्ति पत्र मिलने को है
लाठियाँ स्वयं साम्य कहाँ ही हैं
एक जैसी क़द काठी की लाठियाँ
सिर्फ़ प्रशासन के पास है
बाक़ी की सारी लाठियाँ जनता के हवाले
जनता से, जनता को, जनता के लिए
ऐसी लाठियों को रखा जाए संग्रहालयों में
जिनका सौभाग्य महामनाओं का टेक रहा
बच्चों की लटकी पतंगें उतारने का जो साधन बनीं
बुढ़ापे का हाथ पकड़कर जो उन्हें नदियों-हाटों तक ले गईं
बाक़ी लाठियों की जला दी जाए होली
जिन पर पीठ की चमड़ी और
फटे हुए सिरों का ख़ून लगा है
या तोड़कर भरी पूस की रात में
अलाव में लगा दी जाएँ
ताकि कोई हलकू वापस घुटनियों में गर्दन चिपकाकर
किसी जबरा से ये न पूछे—
“क्यों जबरा, जाड़ा लगता है?”
हलकू अभी ज़िन्दा है
लाठियाँ भी ज़िन्दा हैं
लाठी भी कोई खाने की चीज़ होती है क्या?
आदर्श भूषण की कविता 'सुनो तानाशाह!'