‘Ladkiyaan Jo Durg Hoti Hain’, a poem by Anamika Anu

जाति को कूट-पीसकर खाती लड़कियों
के गले से वर्णहीन शब्द नहीं निकलते,
लेकिन निकले शब्दों में वर्ण नहीं होता है

परम्पराओं को एड़ी तले कुचल चुकी लड़कियों
के पाँव नहीं फिसलते,
जब वे चलती हैं
रास्ते पत्थर हो जाते हैं

धर्म को ताक पर रख चुकी लड़कियाँ
स्वयं पुण्य हो जाती हैं
और बताती हैं –
पुण्य, कमाने से नहीं
ख़ुद को सही जगह पर ख़र्च करने से होता है

जाति, धर्म और परम्परा पर
प्रवचन नहीं करने
वाली इन लड़कियों की रीढ़ में लोहा
और सोच में चिंगारी होती है
ये अपनी रोटी ठाठ से खाते
वक़्त दूसरों की थाली में
नहीं झाँकती

ये रेत के स्तूप नहीं बनाती
क्योंकि ये स्वयं दुर्ग होती हैं।

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अनामिका अनु
निवासी - केरल। शिक्षा - एम एस सी (वनस्पति विज्ञान, विश्वविद्यालय स्वर्ण पदक), पी एच डी - लिमनोलाॅजी (इन्स्पायर फेलोशिप, DST)। प्रकाशन - हंस, कादंबिनी, समकालीन भारतीय साहित्य, नया ज्ञानोदय, वागार्थ, आजकल, मधुमती, कथादेश, पाखी,बया, परिकथा, दोआब, नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, जानकीपुल, शब्दांकन, हिंदीनामा, विश्वगाथा, कविकुंभ, केरल ज्योति, शोध सरोवर, संमग्रंथन, हिन्दगी, अनुनाद, फारवर्ड प्रेस, लिटरेचर प्वाइंट, साहित्य मंजरी, पोषम पा, साहित्य कुंज, दुनिया इन दिनों, चौथी दुनिया आदि पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। ईमेल- anamikabiology248@gmail