किसी अटपटी भाषा में दिए जा रहे हैं
हत्याओं के लिए तर्क
‘एक अहिंसा है
जिसका सिक्का लिए
गांधीजी हर शहर में खड़े हैं
लेकिन जब भी सिक्का उछालते हैं
हिंसा ही जीतती है’
जो लोग मारे गए विभीषिकाओं में
वे लगभग मारे जाने के क़रीब थे
सबसे अगली पंक्ति में
सबसे भयभीत और कायर, तमगे लगाए बैठे हैं
सबसे भयभीत और कायर सबसे पुष्ट हत्यारे हैं
उनकी आभामय दीवारों पर
बैठे हैं प्रायोजक
अवांछित तत्वों की तरह
वे, जो न्याय को छलकर
चोले की तरह उतारकार चले गए
वे उस शासक के संरक्षण में हैं
नहीं है जिसकी प्राथमिकताओं में
प्रवणता
कमतर जीवन का दुःख
ना ही हैं
जून कमाने की जुगत में मारे गए
लोगों के आँकड़े
जिनके नागरिकताबोध की शिनाख़्त में
शायद साल-महीने लगें
शासक को देखा है
मुखौटा उतारकर
ऊँघते
वीभत्स मुद्राओं में
उसका अभिनय प्रायोजित है
और पीड़ाएँ विज्ञापित
वह गहन आत्म-सम्मोहन में
बेहद फूहड़ और बाज़ारू चीज़ें
गाता है
उसकी महानता के झूठे क़िस्से गढ़े गए
लगभग निरंकुश हो चुका शासक
अब
लगभग विशेषण है
और सत्ता से असहमत लोग
लगभग ख़ारिज नागरिक!
मनीष कुमार यादव की कविता 'स्मृतियाँ एक दोहराव हैं'