“तुम ऐसे खाते हो? मैं तो काट के खाती हूँ। ऐसे गँवार लगते हैं और मुँह भी गन्दा हो जाता है और पब्लिक में तो ऐसे खा ही नहीं सकते। तुम न जाने कैसे…। अच्छा तुमने अपनी लाइफ में कितनी तरह के खाये हैं अब तक? यू नो मैं एक बार एक फेस्टिवल में गयी थी दिल्ली के, इतनी वेरायटीज थीं न वहां!! और पता है कॉम्पिटेशन भी हुआ था वहां एक मिनट में सबसे ज़्यादा खाने का। मैं जीत तो नहीं पायी लेकिन बाय गॉड मज़ा आ गया था उस दिन। तुम कुछ बोलोगे नहीं? तुमने सुना भी मैंने जो कहा या मैं पागल ही बैठी हूँ यहाँ? तुम्हारा ध्यान ही नहीं है मेरी तरफ! अब कुछ बोलोगे या मैं जाऊँ?”
“देखो, तुम मेरे लिए ख़ास हो, पर ‘आम’ से ज़्यादा नहीं”।
aam ne kahani ko khaas bana diya..
‘Aam’ hai hi khaas!! Padhne ke lie shukriya, Ujjwal 🙂