ले उड़ा फिर कोई ख़याल हमें
साक़िया साक़िया सम्भाल हमें

रो रहे हैं कि एक आदत है
वर्ना इतना नहीं मलाल हमें

ख़ल्वती हैं तेरे जमाल के हम
आइने की तरह सम्भाल हमें

मर्ग-ए-अम्बोह जश्न-ए-शादी है
मिल गए दोस्त हस्ब-ए-हाल हमें

इख़्तिलाफ़-ए-जहाँ का रंज न था
दे गए मात हम-ख़याल हमें

क्या तवक़्क़ो करें ज़माने से
हो भी गर जुरअत-ए-सवाल हमें

हम यहाँ भी नहीं हैं ख़ुश लेकिन
अपनी महफ़िल से मत निकाल हमें

हम तेरे दोस्त हैं ‘फ़राज़’ मगर
अब न और उलझनों में डाल हमें

अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल 'रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ'

Book by Ahmad Faraz:

Previous articleराहुल सांकृत्यायन – ‘घुमक्कड़ शास्त्र’
Next articleघोष बाबू और उनकी माँ
अहमद फ़राज़
अहमद फ़राज़ (१४ जनवरी १९३१- २५ अगस्त २००८), असली नाम सैयद अहमद शाह, का जन्म पाकिस्तान के नौशेरां शहर में हुआ था। वे आधुनिक उर्दू के सर्वश्रेष्ठ रचनाकारों में गिने जाते हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here