रुचि की कविता ‘लिखने की सार्थकता’ | ‘Likhne Ki Saarthakta’, a poem by Ruchi

लिखने की सार्थकता जानी थी उन गँवार औरतों ने,
जब अपना नाम लिखा था पहली बार।
हँसती-ठेलती इक दूजे को,
आ जाती थीं चौखट पार।
स्कूल का मुँह ना देखा था कभी।
झाड़ा फिरने को मुँह अँधेरे,
सीखा-पढ़ा सारी कक्षाओं का सार।

गुणवन्ती को ना आ पाया कभी,
मरद को बाँधकर रखने का गुन।
कलावती की सारी कलाएँ,
धता बतायी सास ने।
गुलाबो पड़ गयी थी काली
सोलहवें सावन तक,
खोए पति की आस में।

फूलकुमारी फ़ौलाद-सी मज़बूत,
सम्भाल रखा था उस विधवा ने,
खेत खलिहान संग अपना वजूद।
आसारानी ने लगा रखी थी आस,
बड़की बहुरिया ने तो समझा नौकरानी,
छोटकी उतरे तो शायद,
लगाए रानी की कयास।

साँझ ढले रोटी थाप,
भुला सारी खेत की थकान,
बड़े-बुज़ुर्गों की चिलम सुलगा,
बच्चों को खिलवाड़ सिखा,
सास-नन्द को ढोलक में बझा,
दबे पॉंव निकल आने लगीं,
अक्षरों का तिलिस्म सीखने।

लिखना सीखा किसी ने पहले,
पति, सास, जेठ का नाम,
किसी ने बच्चों, देवर, नन्द का,
किसी ने माँ, बाप को लिख डाला,
तो किसी ने भाई बहन और खेत का।
ठमक उठीं अँगुलियाँ सबकी,
नाम जब अपना लिखा पहली दफ़े,
फिराती रहीं अँगुलियाँ पन्ने पर।

अब कोई नाम चूल्हे के पास,
कोयले से गढ़ा होता,
तो कोई खेत की मेड़ों में,
टहनी से गुदा होता।
किसी ने उकेरा पेड़ के तने पर,
तो कुछ दुलरूआ उकेर आयीं,
रात के अँधेरों में खसम की पीठ पर।

किसी की ज़िन्दगी में कोई,
ख़ास बदलाव नहीं आया,
आया तो बस अपनी मुहर लगाना,
ज़मीन, आसमाँ और रेत पर।

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