भगवान करे श्रीमान् इस विनय से प्रसन्न हों – मैं इस भारत देश की मट्टी से उत्पन्न होने वाला, इसका अन्न फल मूल आदि खाकर प्राण-धारण करने वाला, मिल जाय तो कुछ भोजन करने वाला, नहीं तो उपवास कर जाने वाला, यदि कभी कुछ भंग प्राप्त हो जाय तो उसे पीकर प्रसन्न होने वाला, जवानी बिताकर बुढ़ापे की ओर फुर्ती से कदम बढ़ाने वाला और एक दिन प्राण विसर्जन करके इस मातृभूमि की वन्दनीय मट्टी में मिलकर चिर शान्तिलाभ करने की आशा रखने वाला शिवशम्भु शर्मा इस देश की प्रजा का अभिनन्दन पत्र ले के श्रीमान् की सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। इस देश की प्रजा श्रीमान् का हृदय से स्वागत करती है। आप उसके राजा के प्रतिनिधि होकर आये हैं। पांच साल तक इस देश की 30 करोड़ प्रजा के रक्षण, पालन और शासन का भार राजा ने आपको सौंपा। इससे यहां की प्रजा आपको राजा के तुल्य मानकर आपका स्वागत करती है और आपके इस महान् पद पर प्रतिष्ठित होने के लिये हर्ष प्रकट करती है।

भाग्य से आप इस देश की प्रजा के शासक हुए हैं। अर्थात यहां की प्रजा की इच्छा से आप यहां के शासक नियत नहीं हुए। न यहां की प्रजा उस समय तक आपके विषय में कुछ जानती थी, जबकि उसने श्रीमान् के इस नियोग की खबर सुनी। किसी को श्रीमान् की ओर का कुछ भी गुमान न था। आपके नियोग की खबर इस देश में बिना मेघ की वर्षा की भांति अचानक आ गिरी। अब भी यहां की प्रजा श्रीमान् के विषय में कुछ नहीं समझी है, तथापि उसे आपके नियोग से हर्ष हुआ। आपको पाकर वह वैसी ही प्रसन्न हुई है, जैसे डूबता थाह पाकर प्रसन्न होता है। उसने सोचा है कि आप तक पहुंच जाने से उसकी सब विपदों की इति हो जायेगी।

भाग्यवानों से कुछ न कुछ सम्बन्ध निकाल लेना संसार की चाल है। जो लोग श्रीमान् तक पहुंच सके हैं, उन्होंने श्रीमान् से भी एक गहरा सम्बन्ध निकाल लिया है। वह लोग कहते हैं कि सौ साल पहले आपके बड़ों में से एक महानुभाव यहां का शासन कर गये हैं, इससे भारत का शासक होना आपके लिये कोई नई बात नहीं है। वह लोग साथ ही यह भी कहते हैं कि सौ साल पहले वाले लार्ड मिन्टो बड़े प्रजापालक थे। प्रजा को प्रसन्न रखकर शासन करना चाहते थे। यह कहकर वह श्रीमान् से भी अच्छे शासन और प्रजा-रञ्जन की आशा जनाते हैं। पर यह सम्बन्ध बहुत दूर का है। सौ साल पहले की बात का कितना प्रभाव हो सकता है, नहीं कहा जा सकता। उस समय की प्रजा में से एक आदमी जीवित नहीं, जो कुछ उस समय की आँखों देखी कह सके। फिर यह भी कुछ निश्चय नहीं कि श्रीमान् अपने उस बड़े के शासन के विषय में वैसा ही विचार रखते हों, जैसा यहां के लोग कहते हैं। यह भी निश्चय नहीं कि श्रीमान् को सौ साल पहले की शासन नीति पसन्द होगी या नहीं तथा उसका कैसा प्रभाव श्रीमान् के चित्त पर है। हां, एक प्रभाव देखा कि श्रीमान् के पूर्ववर्ती शासक ने अपने से सौ साल पहले के शासक की बात स्मरण करके उस समय की पोशाक में गवर्नमेन्ट हौस के भीतर एक नाच, नाच डाला था।

सारांश यह है कि लोग जिस ढंग से श्रीमान् की बड़ाई करते हैं वह एक प्रकार की शिष्टाचार की रीति पूरी कर रहे हैं। आपकी असली बड़ाई का मौका अभी नहीं आया, पर वह मौका आपके हाथ में विलक्षण रूप से है। श्रीमान् इस देश में अभी यदि अज्ञातकुल नहीं तो अज्ञातशील अवश्य हैं। यहां के कुछ लोगों की समझ में आपके पूर्ववर्ती शासक ने प्रजा को बहुत सताया है और वह उसके हाथ से बहुत तंग हुई। वह समझते हैं कि आप उन पीड़ाओं को दूर कर देंगे, जो आपका पूर्ववर्ती शासक यहां फैला गया है। इसी से वह दौड़कर आपके द्वार पर जाते हैं। यह कदापि न समझिये कि आपके किसी गुण पर मोहित होकर जाते हैं। वह जैसे आंखों पर पट्टी बांधे जाते हैं, वैसे ही चले आते हैं, जिस अंधेरे में हैं, उसी में रहते हैं।

अब यह कैसे मालूम हो कि जिन बातों को कष्ट मानते हैं, उन्हें श्रीमान् भी कष्ट ही मानते हों? अथवा आपके पूर्ववर्ती शासक ने जो काम किये, आप भी उन्हें अन्याय भरे काम मानते हों? साथ ही एक और बात है। प्रजा के लोगों की पहुंच श्रीमान् तक बहुत कठिन है। पर आपका पूर्ववर्ती शासक आपसे पहले ही मिल चुका और जो कहना था वह कह गया। कैसे जाना जाय कि आप उसकी बात पर ध्यान न देकर प्रजा की बात पर ध्यान देंगे? इस देश में पदार्पण करने के बाद जहां आपको जरा भी खड़ा होना पड़ा है, वहीं उन लोगों से घिर हुए रहे हैं, जिन्हें आपके पूर्ववर्ती शासक का शासन पसन्द है। उसकी बात बनाई रखने को अपनी इज्जत समझते हैं। अब भी श्रीमान् चारों ओर से उन्हीं लोगों के घेरे में हैं। कुछ करने धरने की बात तो अलग रहे, श्रीमान् के विचारों को भी इतनी स्वाधीनता नहीं है कि उन लोगों के बिठाये चौकी पहरे का जरा भी उल्लंघन कर सकें। तिस पर गजब यह कि श्रीमान् को इतनी भी खबर नहीं कि श्रीमान् की स्वाधीनता पर इतने पहरे बैठे हुए हैं। हां, यह खबर हो जाय तो वह हट सकते हैं।

जिस दिन श्रीमान् ने इस राजधानी में पदार्पण करके इसका सौभाग्य बढ़ाया, उस दिन प्रजा के कुछ लोगों ने सड़क के किनारों पर खड़े होकर श्रीमान् को बड़ी कठिनाई से एक दृष्टि देख पाया। इसके लिये पुलिस पहरेवालों की गाली, घूसे और धक्के भी बरदाश्त किये। बस, उन लोगों ने श्रीमान् के श्रीमुख की एक झलक देख ली। कुछ कहने सुनने का अवसर उन्हें न मिला, न सहज में मिल सकता। हुजूर ने किसी को बुलाकर कुछ पूछताछ न की न सही, उसका कुछ अरमान नहीं, पर जो लोग दौड़कर कुछ कहने सुनने की आशा से हुजूर के द्वार तक गये थे, उन्हें भी उल्टे पांव लौट आना पड़ा। ऐसी आशा अन्तत: प्रजा को आपसे न थी। इस समय वह अपनी आशा को खड़ा होने के लिये स्थान नहीं पाते हैं।

एक बार एक छोटा-सा लड़का अपनी सौतेली माता से खाने को रोटी माँग रहा था। सौतेली माँ कुछ काम में लगी थी, लड़के के चिल्लाने से तंग होकर उसने उसे एक बहुत ऊँचे ताक में बिठा दिया। बेचारा भूख और रोटी दोनों को भूल नीचे उतार लेने के लिये रो-रोकर प्रार्थना करने लगा, क्योंकि उसे ऊँचे ताक से गिरकर मरने का भय हो रहा था। इतने में उस लड़के का पिता आ गया। उसने पिता से बहुत गिड़गिड़ाकर नीचे उतार लेने की प्रार्थना की। पर सौतेली माता ने पति को डाँटकर कहा, कि खबरदार! इस शरीर लड़के को वहीं टंगे रहने दो, इसने मुझे बड़ा दिक किया है। इस बालक की सी दशा इस समय इस देश की प्रजा की है। श्रीमान् से वह इस समय ताक से उतार लेने की प्रार्थना करती है, रोटी नहीं माँगती। जो अत्याचार उस पर श्रीमान् के पधारने के कुछ दिन पहले से आरम्भ हुआ है, उसे दूर करने के लिये गिड़गिड़ाती है, रोटी नहीं माँगती। बस, इतने ही में श्रीमान् प्रजा को प्रसन्न कर सकते हैं। सुनाम पाने का यह बहुत ही अच्छा अवसर है, यदि श्रीमान् को उसकी कुछ परवा हो।

आशा मनुष्य को बहुत लुभाती है, विशेषकर दुर्बल को परम कष्ट देती है। श्रीमान् ने इस देश में पदार्पण करके बम्बई में कहा और यहां भी एक बार कहा कि अपने शासनकाल में श्रीमान् इस देश में सुख शान्ति चाहते हैं। इससे यहां की प्रजा को बड़ी आशा हुई थी कि वह ताक से नीचे उतार ली जायगी, पर श्रीमान् के दो एक कामों तथा कौंसिल के उत्तर ने उस आशा को ढीला कर डाला है, उसे ताक से उतरने का भरोसा भी नहीं रहा।

अभी कुछ दिन हुए आपके एक लफटन्ट ने कहा था कि मेरी दशा उस आदमी की सी है, जिसके एक हिन्दू और एक मुसलमान दो जोरू हों, हिन्दू जोरू नाराज रहती हो और मुसलमान जोरू प्रसन्न। इससे वह हिन्दू जोरू को हटाकर मुसलमान बीबी से खूब प्रेम करने लगे। श्रीमान् के उस लफटन्ट की ठीक वैसी दशा है या नहीं, कहा नहीं जा सकता। पर श्रीमान् की दशा ठीक उस लड़के के पिता की सी है, जिसकी कहानी ऊपर कही गई है। उधर उसका लड़का ताक में बैठा नीचे उतरने के लिये रोता है और इधर उस की नवीना सुन्दरी स्त्री लड़के को खूब डराने के लिये पति पर आंखें लाल करती है। प्रजा और ‘प्रेस्टीज’ दो खयालों में श्रीमान फंसे हैं। प्रजा ताक का बालक है और प्रेस्टीज नवीन सुन्दरी पत्नी – किसकी बात रखेंगे? यदि दया और वात्सल्यभाव श्रीमान् के हृदय में प्रबल हो तो प्रजा की ओर ध्यान होगा, नहीं तो प्रेस्टीज की ओर ढुलकना ही स्वाभाविक है।

अब यह विषय श्रीमान् ही के विचारने के योग्य है कि प्रजा की ओर देखना कर्तव्य है या प्रेस्टीज की। आप प्रजा की रक्षा के लिये आये हैं या प्रेस्टीज की? यदि आपके खयाल में प्रजा रूपी लड़का ताक में बैठा रोया करे और ‘उतारो, उतारो’ पुकारा करे, इसी में उसका सुख और शान्ति है तो उसे ताक में टंगा रहने दीजिये, जैसा कि इस समय रहने दिया है। यदि उसे वहां से उतारकर कुछ खाने पीने को देने में सुख है तो वैसा किया जा सकता है। यह भी हो सकता है कि उसकी विमाता को प्रसन्न करके उसे उतरवा लिया जाय, इसमें प्रजा और प्रेस्टीज दोनों की रक्षा है।

जो बात आपको भली लगे वही कीजिये – कर्तव्य समझिये वही कीजिये। इस देश की प्रजा को अब कुछ कहने सुनने का साहस नहीं रहा। अपने भाग्य का उसे भरोसा नहीं, अपनी प्रार्थना के स्वीकार होने का विश्वास नहीं। उसने अपने को निराशा के हवाले कर दिया है। एक विनय और भी साथ साथ की जाती है कि इस देश में श्रीमान् जो चाहें बेखटके कर सकते हैं, किसी बात के लिये विचारने या सोच में जाने की जरूरत नहीं। प्रशंसा करने वाले अब और चलते समय बराबर आपको घेरे रहेंगे। आप देख ही रहे हैं कि कैसे सुन्दर कासकेटों में रखकर, लम्बी चौड़ी प्रशंसा भरे एड्रेस लेकर लोग आप की सेवा में उपस्थित होते हैं। श्रीमान् उन्हें बुलाते भी नहीं, किसी प्रकार की आशा भी नहीं दिलाते, पर वह आते हैं, इसी प्रकार हुजूर जब इस देश को छोड़ जायेंगे तो हुजूर बाला को बहुत से एड्रेस उन लोगों से मिलेंगे, जिनका हुजूर ने कभी कुछ भला नहीं किया। बहुत लोग हुजूर की एक मूर्ति के लिये खनाखन रुपये गिन देंगे, जैसे कि हुजूर के पूर्ववर्ती वैसराय की मूर्ति कि लिये गिने जा रहे हैं। प्रजा उस शासक की कड़ाई के लिये लाख रोती है, पर इसी देश के धन से उसकी मूर्ति बनती है।

विनय हो चुकी, अब भगवान से प्रार्थना है कि श्रीमान् का प्रताप बढ़े, यश बढ़े और जब तक यहां रहें, आनन्द से रहें। यहां की प्रजा के लिये जैसा उचित समझें करें। यद्यपि इस देश के लोगों की प्रार्थना कुछ प्रार्थना नहीं है, पर प्रार्थना की रीति है, इससे की जाती है।

बालमुकुंद गुप्त
बालमुकुंद गुप्त (१४ नवंबर १८६५ - १८ सितंबर १९०७) का जन्म गुड़ियानी गाँव, जिला रिवाड़ी, हरियाणा में हुआ। उन्होने हिन्दी के निबंधकार और संपादक के रूप हिन्दी जगत की सेवा की।