अब सारा धुँआ
वाष्प बनकर
मन के किसी कोने में
दुबक्कर सिमट जाता है
कभी थक्के दिखने लगते हैं
यहाँ – वहाँ
कहीं थोड़ी गर्द
जमने लगती है
नवीकरण की चाहत मे
रक्तस्त्राव
का खतरा बना रहता है
लेकिन अब सारी
लिप्साओं
को मुखाग्नि समर्पित कर दी है
अग्रसर हूँ
स्वयं की खोज में
एक नई कोशिश
एक नई राह…
सारिका पारीक ‘जुवि’
मुंबई