‘Mafinama’, a poem by Pallavi Vinod

मैंने पूछा था उससे
क्या देखकर किया इससे प्रेम!
उसने कहा, प्रेम कुछ देखकर कहाँ होता है
बस हो जाता है
मैं उम्र के उस मोड़ पर थी जहाँ ये सब समझना मुश्किल था
फिर भी मैं उसके प्रेम को घटित होते देख रही थी
वो, उसका नाम कुछ भी हो सकता है
रचना, वंदना, सपना या प्रतिमा जैसा कुछ
वो सब प्रेम में डूबी हुई लड़कियाँ थीं
उनके लिए प्रेमी से बड़ी कोई ख़ुशी नहीं थी
हालाँकि सपना के प्रेमी को वंदना पर प्रेम जताते हुए भी देखा गया था
पर सपना की आत्मा को उसके प्रेम ने बहुत ख़ूबसूरती से छुआ था
एक दिन सब ख़त्म हो गया,
प्रेम भी, उसका अजन्मा बच्चा और
उसकी आँखों में पलने वाला सपना भी
प्रेम चौराहे पर खड़ा, अपने दैहिक प्रेम की निशानियाँ बाँट रहा था
लेकिन निर्लज्ज, बेहया तो सपना थी
अपने पिता का सिर समाज के सामने झुका दिया था।

मैंने भी घृणित नेत्रों से उसे देखा था
‘मैं राधा हूँ वो मोहन’ जैसी बातों को व्यंग्य में लपेट
उसकी तरफ़ फेंका था
पता नहीं अब वो कहाँ है
मेरी स्मृतियों में उसका रुदन आज भी मौजूद है
उसकी ग़लतियों की सज़ा सिर्फ़ उसकी बहनों को नहीं
समाज की हर लड़की को मिली थी
सख़्त ज़ुबाँ और तल्ख़ नज़रों की कड़वी दवा सबने पी थी
ताकि प्रेम नाम का कीड़ा हम पर असर न दिखा दे।

सपना कहाँ हो तुम!
तुम्हारे जाने के बाद
बहुत-सी आँखों ने सपने देखना छोड़ दिया
तुम्हारे जाने के बाद
ख़ून से लिखी चिठ्ठियाँ परिहास का विषय
व ‘प्रेम’ भय का पर्याय बन गया।

छोटे-से शहर के हर घर में चर्चा का विषय बस राधा थी
मोहन प्रेम करने के लिए आज भी मुक्त था।

पर आज मैं तुमसे माफ़ी माँगना चाहती हूँ
ख़ुद के लिए, उस समाज के लिए
जिसने तुम्हें दोषी बनाया

तब शायद
तुम्हारी तरह हमें भी नहीं पता था
असफल प्रेम दुनिया के संगीनतम अपराधों में एक है।

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