मेरी ज़िन्दगी में तीन बड़ी घटनाएँ घटी हैं। पहली मेरे जन्म की। दूसरी मेरी शादी की और तीसरी मेरे कहानीकार बन जाने की।

लेखक के तौर पर राजनीति में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। लीडरों और दवाफ़रोशों को मैं एक ही नज़र से देखता हूँ। लीडर और दवाफ़रोशी दोनों पेशे हैं। राजनीति से मुझे उतनी ही दिलचस्पी है, जितनी गांधीजी को सिनेमा से थी। गांधीजी सिनेमा नहीं देखते थे, और मैं अख़बार नहीं पढ़ता। दरअसल हम दोनों ग़लती करते हैं। गांधीजी को फ़िल्में ज़रूर देखनी चाहिए थीं, और मुझे अख़बार ज़रूर पढ़ने चाहिए।

मुझसे पूछा जाता है कि मैं कहानी कैसे लिखता हूँ। इसके जवाब में मैं कहूँगा कि अपने कमरे में सोफ़े पर बैठ जाता हूँ, काग़ज़-क़लम लेता हूँ और ‘बिस्मिल्ला’ कहकर कहानी शुरू कर देता हूँ। मेरी तीनों बेटियाँ शोर मचा रही होती हैं। मैं उनसे बातें भी करता हूँ। उनके लड़ाई-झगड़े का फ़ैसला भी करता हूँ। कोई मिलने वाला आ जाए तो उसकी ख़ातिरदारी भी करता हूँ, पर कहानी भी लिखता रहता हूँ। सच पूछिए तो मैं वैसे ही कहानी लिखता हूँ, जैसे खाना खाता हूँ, नहाता हूँ, सिगरेट पिता हूँ और झक मारता हूँ।

अगर पूछा जाए कि मैं कहानी क्यों लिखता हूँ, तो कहूँगा कि शराब की तरह कहानी लिखने की भी लत पड़ गई है। मैं कहानी न लिखूँ, तो मुझे ऐसा लगता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या ग़ुसल नहीं किया है या शराब नहीं पी है। दरअसल मैं कहानी नहीं लिखता हूँ, बल्कि कहानी मुझे लिखती है। मैं बहुत कम-पढ़ा लिखा आदमी हूँ। वैसे तो मैंने दो दर्ज़न किताबें लिखी हैं और जिस पर आए दिन मुक़दमे चलते रहते हैं। जब क़लम मेरे हाथ में न हो, तो मैं सिर्फ़ सआदत हसन होता हूँ!

कहानी मेरे दिमाग़ में नहीं, मेरी जेब में होती है, जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होती। मैं अपने दिमाग़ पर ज़ोर देता हूँ कि कोई कहानी निकल आए। कहानी लिखने की बहुत कोशिश करता हूँ, पर कहानी दिमाग़ से बाहर नहीं निकलती। आख़िर थक-हारकर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँ। अनलिखी कहानी की क़ीमत पेशगी वसूल कर चुका हूँ, इसलिए बड़ी झुँझलाहट होती है। करवट बदलता हूँ। उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ। बच्चियों को झूला झुलाता हूँ। घर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूँ, घर में इधर-उधर बिखरे नन्हें-मुन्ने जूते उठाकर एक जगह रखता हूँ, पर कमबख़्त कहानी जो मेरी जेब में पड़ी होती है, मेरे दिमाग़ में नहीं आती और मैं तिलमिलाता रहता हूँ।

जब बहुत ही ज़्यादा कोफ़्त होती है, तो ग़ुसलख़ाने में चला जाता हूँ, पर वहाँ से भी कुछ मिलता नहीं। सुना है कि हर बड़ा आदमी ग़ुसलख़ाने में सोचता है। मुझे अपने तजुर्बे से पता लगा है कि मैं बड़ा आदमी नहीं हूँ, पर हैरानी है कि फिर भी मैं हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का बहुत बड़ा कहानीकार हूँ। इस बारे में मैं यही कह सकता हूँ कि या तो मेरे आलोचकों को ख़ुशफ़हमी है या फिर मैं उनकी आँखों में धूल झोंक रहा हूँ।

ऐसे मौक़ों पर, जब कहानी नहीं ही लिखी जाती, तो कभी यह होता है कि मेरी बीवी मुझसे कहती है, “आप सोचिए नहीं, क़लम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए!”

मैं उसके कहने पर लिखना शुरू कर देता हूँ। उस समय दिमाग़ बिल्कुल ख़ाली होता है, पर जेब भरी हुई होती है। तब अपने आप ही कोई कहानी उछलकर बाहर आ जाती है। उस नुक़्ते से मैं ख़ुद को कहानीकार नहीं, बल्कि जेबकतरा समझता हूँ जो अपनी जेब ख़ुद काटता है और लोगों के हवाले कर देता है।

मैंने रेडियो के लिए जो नाटक लिखे, वे रोटी के उस मसले की पैदावार हैं, जो हर लेखक के सामने उस समय तक रहता है, जब तक वह पूरी तरह मानसिक तौर पर अपाहिज न हो जाए। मैं भूखा था, इसलिए मैंने यह नाटक लिखे। दाद इस बात की चाहता हूँ कि मेरे दिमाग़ ने मेरे पेट में घुसकर ऐसे हास्य-नाटक लिखे हैं, जो दूसरों को हँसाते हैं, पर मेरे होठों पर हल्की-सी मुस्कराहट भी पैदा नहीं कर सके।

रोटी और कला का रिश्ता कुछ अजीब-सा लगता है, पर क्या किया जाए! ख़ुदावंदताला को यही मंज़ूर है। यह ग़लत है कि ख़ुदा हर चीज़ से ख़ुद को निर्लिप्त रखता है और उसको किसी चीज़ की भूख नहीं है। दरअसल उसे भक्ति चाहिए और भक्ति बड़ी नर्म और नाज़ुक रोटी है, बल्कि चुपड़ी हुई रोटी है, जिससे ईश्वर अपना पेट भरता है। सआदत हसन मंटो लिखता है, क्योंकि वह ईश्वर जितना कहानीकार और कवि नहीं है। उसे रोटी की ख़ातिर लिखना पड़ता है।

मैं जानता हूँ कि मेरी शख़्सियत बहुत बड़ी है और उर्दू साहित्य में मेरा बहुत बड़ा नाम है। अगर यह ख़ुशफ़हमी न हो तो ज़िन्दगी और भी मुश्किल बन जाए। पर मेरे लिए यह एक तल्ख़ हक़ीक़त है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूँढ नहीं पाया हूँ। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। मैं कभी पागलख़ाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ।

मुझसे पूछा जाता है कि मैं शराब से अपना पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेता? मैं अपनी ज़िन्दगी का तीन-चौथाई हिस्सा बदपरहेज़ियों की भेंट चढ़ा चुका हूँ। अब तो यह हालत है कि परहेज़ शब्द ही मेरे लिए डिक्शनरी से ग़ायब हो गया है।

मैं समझता हूँ कि ज़िन्दगी अगर परहेज़ से गुज़ारी जाए, तो एक क़ैद है। अगर वह बदपरहेज़ियों में गुज़ारी जाए, तो भी क़ैद है। किसी-न-किसी तरह हमें इस जुर्राब के धागे का एक सिरा पकड़कर उसे उधेड़ते जाना है और बस!

सआदत हसन मंटो
सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए।