सुनो…
तुम्हारे भीतर एक कवि रहता है,
यही कहा था उसने एक दिन..!
उसकी यह बात सुनकर मैं उस वक्त
कुछ भी न समझ सकी
इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती
मेरे हाथ में कलम थी
और मेरी भावनाओं ने पहन लिए थे शब्द
मेरे रात के सपने चाँद हो गए थे,
और दिन वाले सपने इंद्रधनुष बनने लगे
सारे तारे मेरे आँचल में टंक गए थे
और मेरी आँखों ने मुस्कुराना शुरू कर दिया
हर पल कुछ न कुछ सोचते रहने वाले दिमाग में
कब दिल ने घर कर लिया, नहीं पता चला
मेरी हर बात कविता और
हर पल शायराना हो चला था
मेरा घर सांतवा आसमान हो गया
मैं पहाड़, नदी, पेड़, सूरज, चाँद से बातें करने लगी
फूल और तितलिओं ने शब्द बनकर
मेरी कलम की नोक से खिलना और उड़ना शुरू कर दिया

हाँ…
उसके भीतर सोने की एक खान है, उसके सोने के सिक्के जो बिखरे पड़े हैं कई जगह न… सब मेरी झोली में आ गिरेंगे …शायद अगले जनम में।

सुनो…
हमारी बात भी अब बात नहीं रही,
कविता हो गई है।

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तरसेम कौर
A freelancer who loves to play with numbers and words.

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