मैं किसी आकुल हृदय की प्रीत लेकर क्या करूँगा!
सिकुड़ती परछाइयाँ, धूमिल-मलिन गोधूलि-बेला,
डगर पर भयभीत पग धर चल रहा हूँ मैं अकेला,
ज़िंदगी की साँझ में मधु-दिवस का यह गान कैसा?
मोह-बंधन-मुक्त मन पर स्नेह-तंतु-वितान कैसा?
मरण-बेला में मिलन-संगीत लेकर क्या करूँगा!
मैं किसी आकुल-हृदय की प्रीत लेकर क्या करूँगा!
सुखद सपनों से विनिर्मित, है न ये संसार मेरा,
प्रबल झंझा झकोरों में, पला है यह प्यार मेरा,
मैं जगत की वँचना के बोल कितने सह चुका हूँ,
छल प्रपँचों की तरणि की धार में मैं बह चुका हूँ,
पुनः मन का वह प्रवंचक मीत लेकर क्या करूँगा!
मैं किसी आकुल हृदय की प्रीत लेकर क्या करूँगा!
आज टूटे हैं युगों की, शृँखला के बंध मेरे
गगन में गतिमान होकर, गा रहे हैं छंद मेरे
फिर भला यह बंधनों का भार लेकर क्या करूँ मैं,
प्यार की यह मदभरी मनुहार लेकर क्या करूँ मैं,
हार हो जिसमें निहित, वह जीत लेकर क्या करूँगा!
मैं किसी आकुल-हृदय की प्रीत लेकर क्या करूँगा!