मैं प्रलय वह्नि का वाहक हूँ,
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ!
शोषित दल के उच्छवासों से, वह काँप रहा अवनी अम्बर
उन अबलाओं की आहों से, जल रहा आज घर नगर-नगर
जल रहे आज पापों के पर, है फूट रहा भयकारी स्वर
इस महा-मरण की वेला में त्यौहार मनाने आया हूँ
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ!
आडम्बर के आगार बने, जिसके सारे ये मठ-मंदिर
पापों का प्रसव कर रहे हैं, जो काम वासना के सागर
जिनमें भ्रूणों के गात गड़े, जो देख रहा है खड़े-खड़े
उस पत्थर के परमेश्वर का अभिसार मिटाने आया हूँ
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ!
जो मज़हब कहलाता, मानव को अत्याचार सिखाता है
जिससे प्रेरित होकर भाई, भाई का ख़ून बहाता है
जो पाखंडों से पलता है, शोषित, दुर्बल को दलता है
उस प्रबल पाप के पुंज, धर्म की धूल बनाने आया हूँ
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ!
सत्ता का नंगा नाच हो रहा आज धरा की छाती पर
दीनों की करुण कराहों का वह गूँज रहा अम्बर में स्वर
धन के घमंड से बने अंध, शासन के मद से जो मदांध
सम्राटों का कर ख़ून, रक्त की धार बहाने आया हूँ
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ!
मद मत्त हुआ अपनेपन में, जो भूल गया है मानवता
जो चूर हुआ है मत्सर में, जो क्रूर हुआ है दानव-सा
केवल अपने ही स्वार्थ-काज, जो कुत्ता है बन गया आज
उस नर का कर संहार, भूमि का भार मिटाने आया हूँ
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ!
जो धन के बल पर मोल रहा, निर्बल मानव की क़िस्मत को
जो पैसों के बल तोल रहा, बेबस नारी की अस्मत को
पग से औरों को ठुकराकर, जो आगे बढ़ जाता हँसकर
मैं अब उसका अभिमान जला कर क्षार बनाने आया हूँ!
मैं प्रलय वह्नि का वाहक हूँ,
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ!