अब मैं ज़रा जल्दी में हूँ
मेरे पास इतनी भी फ़ुरसत नहीं
बैठकर किसी के पास
अपनी ख़ामोशी कह सकूँ
उसकी तन्हाई सुन सकूँ।
मैं चींटियों की तरह
सीधी लकीर में चलता हुआ
अब उस मुक़ाम पर हूँ
जहाँ आसमान से टपकती
पानी की बूँदों से
अपने-अपने काग़ज़ी लिबास बचाने की
मारक होड़ मची है।

अब मैं ज़रा जल्दी में हूँ
मेरे पास न जीतने को कुछ है
न गँवाने लायक़ कुछ
फिर भी निरन्तर भागते जाना है
क्या पता कहीं बँटता हुआ मिल जाए
कोई ऐसा अनचीन्हा सुख
जिसके लिए कोई प्रतिस्पर्धा
कोई कतार न हो।

अब मैं ज़रा जल्दी में हूँ
मेरे पास अभी एकाध सपना बचा है
कुछेक साँसें हैं
उम्मीद के चन्द क़तरे हैं
यादों का कबाड़खाना,
गुमशुदा कल
और लावारिस यक़ीन हैं
क्या पता कहीं मिल जाए
उम्मीदों का जादुई चिराग़
बिन तेल, बिन बाती जलता हुआ

अब मैं ज़रा जल्दी में हूँ
मेरे पास आस है
जो कभी नहीं हुआ, अब हो जाए
ढेर-सा प्यार
थोड़ा-सा दुलार कहीं से मिल जाए
वो न मिले तो न सही
ऐसी कटार ही मिल जाए
जिससे कट जाएँ एक ही वार में
मेरे तमाम निरर्थक ख़ौफ़
सारी कायरता
बहानेबाजी के कवच

अब मैं ज़रा जल्दी में हूँ
धैर्य की सारी सीमा रेखाओं को
लाँघकर चला आया हूँ
किसी नाटक का मूक दर्शक
मुझे नहीं बनना है
अपना नियामक ख़ुद बनना है
बहुत जी लिया इतिहास के ग्रन्थों के
मानचित्रों के ज़रिए
अब और नहीं रेंगना
अतीत की कन्दराओं में
आधारहीन अनुमानों के सहारे।

अब मैं ज़रा जल्दी में हूँ।
ऊबने, ऊँघने, अघाने, सिर्फ़ सोचने विचारने का
समय कब का रीत चुका है।
बिना कुछ किए मरने से बेहतर है
जल्दबाजी में कुछ करते हुए मर जाना।

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निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : [email protected]

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