‘Man Ka Rahasyamayi Sandooq’, a poem by Deepmala Singh
कभी खोलकर देखा है आपने मन का संदूक़?
झिझक की चादर से ढका हुआ
एकदम महफ़ूज़ या यूँ कहूँ मजबूर
कोने में रक्खा मेरे और आपके मन का संदूक़।
वो परत-दर-परत तकलीफ़ों की धूल में सराबोर
उसके भीतरी पटल में न जाने कितनी ही टूटी-फूटी चीज़ों के समरूप है कुछ अपेक्षाएँ
जिन्हें फेंक नहीं सकते
कुछ टूटी-फूटी उम्मीदों से बंधित जो है अब तलक।
उसके एकदम बाजू में पड़ी
कुछ जंग लगती ख़्वाहिशें
जो शायद अधमरी सी हो चली हैं।
उस संदूक़ में सबसे नीचे दबे हुए हैं
कुछ अनकहे चीख़ते वो मौन शब्द ।
और इस संदूक़ पर लटका हुआ
इक सहमा हुआ सा भयरुपी वो ताला
जो लटका ही रह गया आजीवन।
अनेक कोशिशें भी कीं
इसे हिम्मत की चाबियों से खोलने की
कमबख़्त खुला ही नहीं।
फिर लगा कि शायद
किसी और के पास होगी चाबी
इंतज़ार भी किया एक निःसहाय की तरह,
अरसे बाद एहसास हुआ कि
असल चाबी मेरे पास ही थी, कहीं दब गयी थी।
गलत चाबियों से खोलने का
वो प्रयत्न भी खोखला था
बिलकुल खोखला
कुछ कमी थी उसमें, डर जो हावी था उसपर।