मछली, मछली, कितना पानी? ज़रा बता दो आज,
देखूँ, कितने गहरे में है मेरा जीर्ण जहाज़।
मन की मछली, डुबकी खाकर कह दो कितना जल है,
कितने नीचे, कितने गहरे, कहाँ थाह का थल है?
पंकिल थल, सुनील जल, हिल-मिल हुए कहाँ हैं एक?
मछली, मछली, मुझे बता दो कहाँ थाह की रेख?
कई बार तल से टकराया, फिर भी पता न पाया,
ज्यों ही पैठा, त्यों ही उफना कर फिर से उतराया,
जलनिधि के उलीचने को टपकाए बिंदु अनेक,
किंतु टिटिहरी का धीरज छूटा, अथाह जल देख,
अब तुमसे कहता हूँ, मुझको ज़रा बता दो मीन,
कितने नीचे तल की भूमि सिमिटती है संकीर्ण,
तरल तरंगें बढ़ आती हैं, होता हूँ हैरान,
ये उठती लहरें सिंचित करतीं तट का मैदान।
यहाँ, वहाँ, सर्वत्र आप-ही-आप जलधि का क्षार
कीर्णित हो जाता है मम जीवन-तट पर प्रति बार।
कैसे यह जल का प्लावक विप्लव होवेगा शांत?
मन की मछली, कहो, हृदय कैसा होगा विश्रांत?
तुम्हें डूबने ही में सुख मिलता है क्या जल बीच?
आने में संकोच किया करती हो क्यों थल-बीच?
मेरा जल-थल एक हो रहा है, न करो कुछ सोच,
प्राण नाश का अर्थ हो गया है जीवन का लोच!
इधर-उधर मुड़ जाने ही से जीवन-गाँठ बँधी है!
मछली, मछली, इसीलिए अभिलाषा आज सधी है।
यदि थल में आ जाओगी, तो प्राण नहीं तड़पेंगे,
द्रवित तटों के पंकिल रज-कण में दुखिया अटकेंगे,
यदि तड़ते ये बंदी तो भी चरणों में जाएँगे,
वहीं रहेंगे मंडराते ये, वहीं शांति पाएँगे।
जी के कठिन प्रश्न का उत्तर यों ही मिल जाएगा,
मन की मछली, निडर प्रेम यों सौदा निपटाएगा।
जिसके एक-एक पद संचालन से कंपते प्राण,
जिसके नेह-पगे अवलोकन से ढुरता है त्राण,
प्राण-प्राण के मिस होता है जहाँ नेह का दान,
नेह-दान के मिस जो करती है मुझको मियमाण।
उसका कुछ परिचय दे दो, वह निष्ठुर प्रतिमा कौन।
मन की मछली, क्यों साधे बैठी हो तुम यह मौन?
गहराई के अंतस्तल में कौन छिपी बैठी है?
मछली, मछली, ज़रा बता दो कौन हूक पैठी है?