‘कवि ने कहा : मंगलेश डबराल’ से साभार
पाब्लो नेरूदा ने अपने संस्मरणों में एक ऐसे व्यक्ति का ज़िक्र किया है जिसने उनकी कुछ अवसादग्रस्त कविताओं को पढ़कर आत्महत्या कर ली थी। ‘रेसिदेंसीया एन ला तीयेरा’ यानी ‘पृथ्वी पर घर’ नामक वह कविता संग्रह एक पेड़ के नीचे उसके शव के पास रखा मिला। नेरूदा को लगा जैसे उस पाठक के ख़ून के दाग़ उनकी कविताओं पर लगे हों और उन्होंने इसके बाद हताशा, अंधकार और मृत्यु की कविताएँ लिखना बंद कर दिया।
लेकिन गुजरात के एक क़स्बे अतुल की एक शिक्षिका लता शर्मा के घर में चौका-बर्तन करने और बचे हुए समय में दसवीं की पढ़ाई करनेवाली एक आदिवासी लड़की टीना नाइका की कहानी कुछ और है। माता-पिता को उसका विवाह करने की जल्दी थी, लेकिन ग़रीब, काली और घर-घर घूमनेवाली होने के ‘आरोप’ में जब अनेक सम्भावित वरों ने एक-एक कर उसे अस्वीकार कर दिया तो एक दिन वह अपने जीवन का अंत करने बैठी। संयोग से उसे बचा लिया गया और फिर जिस चीज़ ने उसके जीवन की काल कोठरी में एक खिड़की खोली, वह उसकी पाठ्यपुस्तक में छपी हुई एक हिन्दी कविता थी।
कविता शायद इसी तरह जीवन और मृत्यु के आसपास रहती है। साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलने की कुछ आश्चर्यजनक सूचना के कुछ दिन बाद जब मैं यह वक्तव्य लिखने की सोच रहा था तो चारों ओर गुजरात में भूकम्प से हुए विनाश की ख़बरें थीं। उन हृदय विदारक घटनाओं और दृश्यों में जीवन के अंत का कोई अंत नहीं था और जो कुछ बचा-खुचा था, उस पर भी मृत्यु की गहरी छाप थी। छब्बीस जनवरी को प्रभात फेरी के समय ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’ गाते हुए चार सौ बच्चे मलबे में दब गए थे और सैकड़ों बच्चे एक शरणार्थी शिविर में एक उदास खेल खेल रहे थे और अब अपने घर नहीं जाना चाहते थे क्योंकि उनका कोई घर नहीं था क्योंकि जीवित रहना ही अब उनका घर था। जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि यह विनाश सिर्फ़ प्रकृति का कोप या किसी पाप का फल नहीं, बल्कि उस विराट माफ़िया तंत्र की देन है जो आज हमारी राजनीति, समाज और मानव सम्बन्धों पर भी क़ब्ज़ा कर चुका है, उन्हें भ्रष्ट और क्रूर बना चुका है। यह क्रूरता उस समय भी दिखी जब अमीरों को एक अमीर राहत और ग़रीबों को एक ग़रीब राहत दी जा रही थी। हिन्दू राहत अलग थी, मुसलमान राहत और दलित राहत अलग। एक साम्प्रदायिक संगठन के लोग भूख से पीड़ित भीड़ को रोटी देने से पहले एक ख़ास तरह का धार्मिक जयकार करने के लिए कहते थे। जिस क्रूरता ने गुजरात में रेत के घर बनाकर एकमुश्त तबाही और मौत का इंतज़ाम किया था, वही करुणा और सम्वेदना के इन क्षणों में, राहत और पुनर्वास में भी अपना सर उठाती थी।
ऐसे में मैने देखा मेरी कविता क्या कर सकती है। उसका क्या मतलब है और वह क्या बचा सकती है। वह काग़ज़ों में पड़ी थी—निष्क्रिय, लाचार और धूल होती हुई। जैसे गुजरात में ढही इमारतों का कुछ मलबा उस पर गिर पड़ा हो, जैसे भूखों को रोटी देते समय दिखी उस क्रूरता ने उसे भी दबोच लिया हो। लेकिन क्या यह मलबा उस पर इन तमाम वर्षों से नहीं गिरता रहा है? अपनी उन्नत सभ्यता के अहंकार में गरजता निकृष्ट कोटि का एक शासक वर्ग कुछ न कुछ तोड़कर गिराता आया है जिसकी चोटों के निशान हमारे समय की कविता पर देखे जा सकते हैं। बाबरी मस्जिद का ध्वंस ऐसी ही एक घटना थी, और क्या उसे ढहानेवाली और गुजरात में विनाश लानेवाली ताक़तें एक ही बड़े सत्तातंत्र का हिस्सा नहीं हैं? इन दिनों इस बात का काफ़ी शोर है कि बाबरी मस्जिद किसने गिरायी और इस सिलसिले में झूठ का एक चक्रव्यूह ही रचा जा चुका है ताकि सच तक पहुँचना असम्भव हो जाए। लेकिन यह कोई नहीं पूछता कि आख़िर बाबरी मस्जिद को क्यों गिराया गया। क्या उसे इसलिए ढहाया गया कि अनेकता, बहुलता और विविधता को अपनी विशेषता माननेवाले हमारे समाज में अंग्रेज़ शासकों के किए हुए विभाजन की तर्ज पर एक और मानसिक विभाजन कर दिया जाए? इस दुर्घटना ने हमारे सामाजिक सम्बन्धों, व्यवहारों और हमारी भाषा तक में असहिष्णुता, घृणा, क्रूरता, हिंसा और उन्माद के रास्ते खोल दिए और विचार और साहित्य के संसार में एक गहरा अपराध-बोध पैदा कर दिया। सत्ता-राजनीति अपनी कमतर सम्वेदनशीलता के चलते इस तरह की ग्लानियों से अपने को जल्दी ही मुक्त कर लेती है लेकिन कविता, संताप और पश्चाताप की गठरी अपने सर से नहीं उतार सकती। हमारे एक बड़े कवि रघुवीर सहाय, जिन्होंने अपनी एक कविता में कहा था कि वह दिन-भर जोड़कर रखती है वह सब जो दिन-भर तोड़ा है महामंत्री ने देश में, अपने आख़िरी दिनों में इस बात से बहुत विचलित थे कि वे जिस भाषा में साधारण जन के संघर्षों को बतलाते रहे, वह भाषा साम्प्रदायिकता, क्रूरता और मनुष्य के प्रति घणा से भर रही है। अंतिम दिनों में वे उन प्रक्रियाओं की पड़ताल कर रहे थे जिनकी परिणति आगे चलकर बाबरी विध्वंस में हुई और दंगों, हत्याओं, ईसाइयों पर आक्रमण और बलात्कार और पादरी ग्राह्म स्टेंस और उसके मासूम बच्चों को जला दिए जाने जैसे अपराधों तक फैलती गयी। इन हादसों के प्रति क्या मेरी कविता की कोई जवाबदेही है? क्या मेरे आसपास एक निर्मम मनुष्य बनता चला गया, एक आततायी व्यवस्था खड़ी होती गयी और मैं इस सबसे बेख़बर कविता लिखता गया? सहसा अपने एक महाकवि गजानन माधव मुक्तिबोध की एक प्रसिद्ध कविता ‘अंधेरे में’ याद आती है : गलियों में अंधकार भयावह/ मानो मेरे कारण ही लग गया मार्शल लॉ वह/ मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/ मानो मेरे कारण ही दुर्घट/ हुई यह घटना।
कविता अपने समय के संकटों को पूरी सच्चाई से कभी व्यक्त नहीं कर पाती इसलिए उसमें हमेशा ही संकट बना रहता है।
लेकिन यह उसके लिए दोहरे संकट का, दोहरे आपातकाल का समय है जब बाहर से महाबली बहुराष्ट्रीय निगम और उनका जगमगाता बाज़ार और भीतर से सांस्कृतिक फ़ासीवाद की शक्तियाँ समाज को अपने-अपने तरीक़ों से विकृत कर रही हैं। इस बाज़ारवाद और कट्टरतावाद की मिलीभगत को सभी जानते हैं जिसमें से एक ने लालच और सफलता की हमारी निकृष्ट इच्छाओं को सार्वजनिक कर दिया है और दूसरे ने हमारे सबसे आंतरिक नैतिक मूल्यों को, हमारे मनुष्य होने को, हमारे आत्मिक जीवन को दूषित करते हुए हमें एक हीन मनुष्य में तब्दील कर दिया है। यह ख़राब किया जा रहा मनुष्य आज जगह-जगह दिखायी देता है जिसमें धैर्य और सहिष्णुता बहुत कम है और जिसके भीतर उग्रता और आक्रामकता, दूसरे को पीछे ठेलकर जल्दी से कुछ झपट लेने, लूट लेने और कामयाब होकर खिलखिलाने की बेचैनी बढ़ती जा रही है। ऐसे समय में समाज के ग़रीब नागरिकों को अ-नागरिक बनाकर अदृश्य हाशियों की ओर फेंक दिया जाता है, उनके लिए नये-नये रसातल खुलते जाते हैं जबकि समाज का एक छोटा-सा और ताक़तवर तबक़ा रोग-शोक-संताप से दूर अपने उत्सव मनाता रहता है और एक स्थायी कॉकटेल पार्टी में बदल जाता है। शेष समाज की जर्जरता बढ़ने के साथ-साथ शासक वर्ग के राग-रंग, उसके खानपान के अश्लील आयोजन बढ़ते हैं क्योंकि संकट से बचे रहने का, विपत्तियों को परे धकेलने का तात्कालिक आधुनिक उपाय यही है। धर्म, व्यवसाय, राजनीति में इसी वर्ग का बोलबाला है। वह बाज़ार में उदारतावाद और संस्कृति में संकीर्णतावाद का समर्थक है और इसके बाहर जो मध्यवर्ग फैला हुआ है, जिसके बीच हमारी कविता उपस्थित रह सकती थी और कुछ काम कर सकती थी, वह अभिजात वर्ग पर अपनी विस्मित आँखें गड़ाए हुए है।
एक तरफ़ वह वर्ग है जिसे जीवन में कविता की ज़रूरत महसूस नहीं होती और दूसरी तरफ़ वे अंधेरे हाशिये हैं जहाँ पशुओं से भी बदतर जीते लोगों को अपने जीवन में कविता की ज़रूरत महसूस करने का कोई मौक़ा ही नहीं दिया गया है।
हमारे जनकवि नागार्जुन अपनी एक कविता में उन लोगों को प्रणाम करते हैं जो विफल रहे, पूर्णकाम नहीं हो सके, आधे रास्ते में ही थककर बैठ गए, छोटी-सी नाव लेकर जीवन का महासागर पार करने निकले और डूब गए। इन पूर्णकाम न हो सके लोगों का एक पूरा देश है जो हमारे संतुष्ट-सुरक्षित संसार को झकझोरता-हिलाता रहता है।
क़रीब तीस बरस पहले पहाड़ी गाँव के एक गहरे बीहड़ भूगोल से निकलकर दिल्ली आने के बाद मैंने जर्मन कवि-नाटककार बेर्टोल्ट ब्रेश्ट की कविता पढ़ी थी: पहाड़ों की यातनाएँ हमारे पीछे हैं। मैदानों की यातनाएँ हमारे आगे हैं। शायद यही वह अनुभव था जो मेरे भीतर इतने समय से घुमड़ता था और जिसे मैं समझ या व्यक्त नहीं कर पाता था। तब से मेरे पीछे पहाड़ों की यातनाएँ बढ़ती गयी हैं और मेरे आगे मैदानों की यातनाएँ फैलती गयी हैं जिन्हें जब कभी मैं पहचान पाता हूँ तो एक नयी कविता बन जाती है और इस तरह मैं कविता का एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने की इच्छा लिए हुए उसका एक अंशकालिक कार्यकर्ता बना रहता हूँ। बाक़ी समय मुझे कवि की छवि विडम्बनापूर्ण लगती रहती है जो ‘द्रष्टा, मनीषी और मार्गदर्शक’ की अपनी पारम्परिक स्वप्निल-सी परिभाषा और अपनी मामूली, संतापित, कुछ-कुछ ग़ैर-सामाजिक और अव्यावहारिक परिणतियों के बीच झूलता रहता है। जब वह अपनी अधूरी-रफ़ कविताओं में सर खपा रहा होता है, उसके पड़ोसी सपरिवार बाज़ार की तरफ़ निकल रहे होते हैं, घर के लिए ज़रूरी सामान और बच्चों के लिए ग़ुब्बारे ख़रीद रहे होते हैं। लेकिन तब भी कितना आश्चर्य है कि इस विपुल पृथ्वी पर कितनी विपुल कविता लिखी जाती रही है। उसमें मनुष्य के महास्वप्न देखे गए और भीषण शोक व्यक्त किया गया, अथाह प्रेम किया गया और अनवरत आँसू बहाए गए। सहसा हमारे कितने ही पूर्वज कवि छोटे-बड़े अनगिनत पेड़ों की तरह प्रकट हो जाते हैं और एक पूरा जंगल और एक पूरी प्रकृति बना लेते हैं। वे अपनी वसीयतें हमारे नाम लिख चुके हैं। दरअसल यह भी कविता की ही ख़ूबी है कि लिखी जाने के बाद वह अपने रचनाकार को छोड़ देती है, उससे मुक्त और निर्वैयक्तिक हो जाती है, दूर चली जाती है। सबसे निजी, रहस्यमय और जादुई कही जानेवाली इस कला का सबसे अधिक सार्वजनिक, सामाजिक और रहस्यहीन हो जाना मुझे चकित करता रहा है। हमारे समय की बड़ी कविता नारों, मुहावरों और लोकोक्तियों में भी रूपांतरित होती रही है और इसीलिए कबीर, मीरा, मीर, ग़ालिब और नज़ीर और दूसरी तमाम भाषाओं के महाकवि आज भी काल से होड़ लेते दिखायी दे जाते हैं। प्रसिद्ध उत्तर-आधुनिक चिंतक ज़ाक देरीदा ने ठीक ही लिखा है कि कविता में किसी शब्द का कोई अर्थ नहीं होता, बल्कि वह शब्द वही वस्तु होता है जिसके लिए वह शब्द प्रयुक्त किया गया है। सच्ची कविता अपने भीतर वर्णित वस्तुओं, दृश्यों, घटनाओं और मनुष्यों तक पहुँचने की, उनमें तब्दील होने की एक निरंतर कोशिश है और जो कविता या उसकी जो पंक्तियाँ ऐसा कर लेती हैं, वे जीवन और प्रकृति का अंग बन जाती हैं या एक नयी सृष्टि की रचना कर पाती हैं। यह एक दोहरी प्रक्रिया है जिसमें कवि को कविता के बाहर और भीतर दोनों जगह एक साथ रहने का जोखिम उठाना होता है।
लेकिन मैंने हिन्दी कवि का वह अकेलापन भी देखा है जो लिखने के शांत क्षणों में तो सुखद हो सकता है, लेकिन उससे बाहर सामाजिक समय में बहुत डरावना है। यह अकेलापन दूसरी भाषाओं के लेखकों से इस अर्थ में काफ़ी अलग है कि उनके सामने एक समाज है, एक पाठक समुदाय है जो हमेशा दृश्यमान भले ही न हो, लेकिन अदृश्य तरीक़े से उनके जीवन में अपनी उपस्थिति, अपना आभास बनाए रखता है और उसे दूर से ही सही, पुकारता रहता है। लेखक भी उसके प्रति जवाबदेह होता है और उसकी प्रसन्न या उदास धुंधली-सी शक्ल उसे दिखायी देती रहती है। इसके विपरीत हिन्दी लेखक का साक्षात्कार या तो एक भीषण रूप से अशिक्षित और विपन्न रखे गए समाज से होता है या फिर उस मध्यवर्ग से, जो कविता के नाम पर चुटकुलों और कहानी के नाम पर सस्ते यानी उपन्यासों के अलावा लगभग कुछ नहीं पहचानता। हमारे पेशेवर हिन्दीसेवी अकसर गर्व से कहते हैं कि हिन्दी सबसे बड़े भूगोल की भाषा है, उसे सबसे ज़्यादा लोग बोलते हैं और यहाँ तक कि वह राजभाषा भी है। लेकिन ठीक यही स्थिति एक कवि के लिए उसकी शर्म को बढ़ानेवाली है। मैं सोचता हूँ कितना अच्छा होता अगर मेरी भाषा राजभाषा न होती। तब वह कुछ मनुष्यों की मातृभाषा होती, राज्यसत्ता से जुड़ी हुई नहीं होती। उसमें वह एक नकली दम्भ नहीं होता जो प्रायः भीतर से खोखले होते हुए लोगों या समुदायों में पाया जाता है और उसमें एक तरफ़ लगातार अशिक्षित, संस्कृतिहीन होता हुआ वर्ग और दूसरी तरफ़ लगातार फल प्राप्त करता हुआ परजीवी क़िस्म का हिन्दीसेवी समुदाय न पैदा हुआ होता। हिन्दी अगर एक छोटी-सी भाषा होती, लोग उसे प्रेम और मनुष्यता के साथ बरतते तो उसका लेखक इतना अकेला नहीं होता। मुक्तिबोध नामक एक विराट पेड़ होता, जिस पर नागार्जुन के घने पत्ते होते और शमशेर नाम की सुन्दर चिड़ियाँ उस पर बैठकर मीठी ग़ज़ल गुनगुनातीं। लेकिन मैं एक ऐसे समाज का सदस्य हूँ जहाँ भाषा और शिक्षा के प्रति बहुत कम सम्मान है, संस्कृति की सजगता बहुत कम हो चली है, पोषण और अवलम्बन देनेवाला, सावधान करनेवाला पाठक समुदाय नहीं रह गया है और कुल मिलाकर भ्रष्ट सत्ता-राजनीति ही सबसे बड़ा रोज़गार है जिसमें लोग पूरी अश्लीलता से लगे हुए हैं। शायद इसीलिए साहित्यिक जन अपनी ही बिरादरी में गोल बनाकर किसी छोटे से क़बीले की तरह रहते हैं जहाँ अनेक बार आपसी कलह और सम्वादहीनता दिखायी देती है तो इसलिए कि सभी अपनी-अपनी तरह से हताश और एकाकी हैं और सभी उसे अपने से छिपाते रहते हैं। कभी मैं सोचता हूँ क्या मैं लम्बे समय से एक ऐसे अस्थायी नक़ली सेट पर रह रहा हूँ जैसा हिन्दी फ़िल्मों में दिखाया जाता है।
(साहित्य अकादेमी पुरस्कार, 2001 के समय दिए गए वक्तव्य का कुछ संक्षिप्त रूप)
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