मन्नू भण्डारी के उपन्यास ‘महाभोज’ से उद्धरण | Quotes from ‘Mahabhoj’, a novel by Mannu Bhandari
चयन व प्रस्तुति: पुनीत कुसुम
“अपने व्यक्तिगत दुख-दर्द, अंतर्द्वंद्व या आंतरिक ‘नाटक’ को देखना बहुत महत्त्वपूर्ण, सुखद और आश्वस्तिदायक तो मुझे भी लगता है, मगर जब घर में आग लगी हो तो सिर्फ़ अपने अंतर्जगत में बने रहना या उसी का प्रकाशन करना क्या ख़ुद ही अप्रासंगिक, हास्यास्पद और किसी हद तक अश्लील नहीं लगने लगता?”
“मरे आदमी और सोए आदमी में अंतर ही कितना होता है भला! बस, एक साँस की डोरी! वह टूटी और आदमी गया!”
“आदमी का दुख जिस दिन पैसे से दूर होने लगेगा—इंसानियत उठ जाएगी दुनिया से।”
“आत्मा की आवाज़ में बड़ा ज़ोर होता है। ज़ोर भी और तेज़ भी।”
“स्वार्थ को इतनी छूट देना ठीक नहीं कि वह विवेक को ही खा जाए।”
“मेरा तो उसूल है कि दर्पण को धुँधला मत होने दो। हाँ, अपनी छवि देखने का साहस होना चाहिए आदमी में। बड़ी हिम्मत और बूता चाहिए उसके लिए। इससे जो कतराता है, वह दूसरे को नहीं, अपने को ही छलता है।”
“ग़ुलामी आत्मा का क्षय तो करती ही है!”
“कुर्सी और इंसानियत में बैर है। इंसानियत की खाद पर ही कुर्सी के पाए अच्छी तरह जमते हैं।”
“जनता का बँटा-बिखरापन ही तो स्वार्थी राजनेताओं की शक्ति का स्रोत है।”
“गहरी निष्ठा से उपजी हुई बातें बाहरी समर्थन की मोहताज नहीं होतीं।”
“ढोल पीटने और दुहाई देने के लिए तो ज़रूर प्रजातंत्र था, पर उसकी असलियत यह कि प्रजा बिलकुल बेमानी और तंत्र मुट्ठी-भर लोगों की मनमानी।”
“मंज़िल तक पहुँचने के लिए हम सड़क बनाते हैं… पर जब सड़क बन रही होती है, उस समय वही हमारा लक्ष्य होती है, वही हमारा केंद्र। मंज़िल पर पहुँचने का माध्यम तो वह बनने के बाद ही बनती है।”
“मात्र उम्मीद की डोर से बँधा हुआ आदमी भी बहुत कुछ कर गुज़रता है कभी-कभी!”
“जनता एक होती है तो बड़े-बड़े राज्य उलट देती है। फिंका हुआ आदमी ही इस बात को सबसे ज़्यादा महसूस करता है। कुर्सी पर बैठना है तो जनता में फूट डालो… कुर्सी बचानी है तो जनता में फूट डालो। जनता की एकता—कुर्सी के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है।”
“राजनीति हमारी विचार-शून्य तो थी ही… इधर कुछ सालों से आचार-शून्य हो गई है।”
“आदमी जब अपनी सीमा और सामर्थ्य को भूलकर कामना करने लगे तो समझ लो, पतन की दिशा में उसका क़दम बढ़ गया।”
“कुछ बातें, कुछ तथ्य, कुछ स्थितियाँ प्रचलित होते-होते सबके बीच इस तरह स्वीकृति पा लेती हैं कि वे फिर लोगों की सोच की सीमा में रहती ही नहीं।”
प्रियम्वद के उपन्यास 'धर्मस्थल' से उद्धरण