उस दिन अलसभोर कॉल बैल बजी। मज़े की बात यह कि आवाज़ सिर्फ़ मुझे ही सुनायी दी। घर में वैसे तो तमाम लोग थे जिनका दावा है कि उनकी नींद सबसे कच्ची है। मैं घोड़े बेचकर सोया था फिर भी उठ गया। मुझे पहले पहल लगा कि कोई न आया है, कोई न आया होगा, मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा। लेकिन यह दरवाज़ा खटखटाने की नहीं, घण्टी के टनटनाने की ध्वनि थी। आवाज़ और आवाज़ में बड़ा फ़र्क़ होता है। मैंने झटपट दरवाज़ा खोला तो देखा कि कोई अन्तरिक्ष यात्री जैसी पोशाक पहने खड़ा है। इसी तरह की ड्रेस बम निरोधक दस्ते वाले भी पहनते हैं।

इससे पहले मैं पूछता – कौन? जवाब आया – सआदत

-कहिये मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ? मैंने कहा। क्या मेरे घर में बम होने की इत्तिला है?

-नहीं भई ,मैं मंटो।

-कौन मंटो? मैं यह नाम पहली बार सुन रहा हूँ। आप कहीं मिंटू तो नहीं। मिंटू टिक्की  भण्डार वाले। जिसे लोग अब एमटीबी कहने लग पड़े हैं।

-जी मैं सआदत हसन मंटो। अतरिक्ष यात्री जैसे लग रहे आदमी ने जब यह कहा तो मैं चौंका।

-वही मंटो जिसकी बदनाम कहानियाँ एक बार मैं ग़लती से ख़रीद लाया था तो हमारी मैडम जी ने उसे बिना पढ़े ही ग़लीज़ किताब कहकर खिड़की से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। मुझे आईना दिखाते हुए कहा था- अपनी उम्र देखो। तुम्हारा छिछोरापन कब जाएगा?

मंटो ने यह सुन लबादा उतार फेंका और पूछा – तुमने कभी मेरे अफ़साने पढ़े?

-हाँ पढ़े? मैंने जवाब दिया। और हम दोनों बालकनी में पड़ी कुर्सी पर बैठ गए।

-मैं तुम्हारे पास तुम्हारी खुली सोच के चर्चे सुनकर आया था। तुम भी कुएँ के मेंढक निकले। मंटो के जब यह बात कही तो उसके लहजे में तुर्शी नहीं, अजब उदासी थी। सूफ़ियाना दर्द छलका तो मैंने कहा – मंटो चाय चलेगी?

-हाँ, ग्रीन टी पिलाओ तो बात बने। मंटो ने कहा।

-ग्रीन टी? तुम कबसे इतने हेल्थ कॉन्शस हो गए? मैंने कहा।

-अब मैं जहाँ हूँ, वहाँ इस तरह का कोई मसअला नहीं? जवाब मिला।

-फिर?

-वहाँ से यहाँ आने के लिए जो परमिशन मिली है, उसमें तमाम ज़रूरी हिदायत के साथ बारीक लफ़्ज़ों में लिखा है- कण्डीशन्स एप्लाई।

तो?

-मैं जिस फ्लाईंग कार्पेट से यहाँ आया, उसकी हॉस्टेस ने चेताया था कि तुम वहाँ चाय पीना तो सिर्फ़ हरी-भरी। और इसके अलावा कुछ पीने का मन हो तो वापस जन्नत में लौट आना। वहाँ वो इफ़रात में है। जमीन पर कोई झँझट क्रियेट न करना।

-ओह, तो तुम जन्नत में हो? मैंने पूछा।

-जी, हूँ तो जन्नत में ही। आप क्या समझे थे- दोज़ख़ में हूँगा?

-नहीं नहीं मंटो जी, दोज़ख़ में हों आपके दुश्मन।

-मेरे जीते जी इतने दुश्मन रहे कि यदि सबको दोज़ख़ में नसीब हुई होती तो वहाँ ‘नो वेकेंसी’ का बोर्ड कब का लटक जाना था। वैसे क़सम से दोज़ख़ है बड़ी नफ़ीस जगह। बिल्कुल वैसी जैसी तुम्हारी यह धरती।

-अच्छा मंटो यह तो बताओ, अब भी अफ़साने लिखते हो?

-जन्नती अफ़साने नहीं, सिर्फ़ आलोचना करते हैं। दूसरे के लिखे की छिछालेदरी करते हैं। यहाँ तो छाज तो बोले ही बोले, वे भी लम्बी हाँकते हैं जिनकी करनी में हमेशा बहत्तर सुराख रहे। उसने बताया।

-मेरी बात जाने दो। मुझे जो करना था कर गुज़रा। तुम बताओ क्या लिखते हो? मंटो ने सवाल किया।

-व्यंग्य लिखता हूँ। लिखता क्या हूँ मियाँ, तंज़ को ख़ुद पर झेलता हूँ। मैंने बता दिया।

-चलो ठीक। पर तुमने जो यह मुझे मियाँ कहा, यह तंज़ है क्या?

-हाँ है या शायद नहीं है, यह तो आदरसूचक शब्द है। मैंने झिझकते हुए ऑफ व्हाईट झूठ जैसा कुछ बोला।

-मैं तो उम्र भर कभी अपनी बीवी के लिए भी मियाँ-वियाँ न हुआ, फ़क़त मंटो ही रहा। चलो छोड़ो इसको, यह बताओ कि तुम्हारे अदीब अब क्या लिखते हैं? मंटों ने जानना चाहा।

-यह बताऊँगा, पहले तुम यह बताओ कि यहाँ आकर कैसा महसूस हो रहा है। मेरे भीतर के गोपीचंद जासूस ने मंटो के दिल की टोह लेनी चाही।

-वैसा ही जैसे कोई ख़ुदकुश हमलावर ख़ुद को उड़ा पाने में कामयाब न होने पर महसूस करता है। जैसी प्रतीति किसी मज़ार या मन्दिर में रखे बताशे को देख शक्करखोर चींटे को होती रही है। जैसा नदीदापन भूख हड़ताल पर बैठे आदमी की आँखों में कढ़ाई में तली जाती जलेबियों को देखकर छलक आता है।

-वैसे यह तो बताओ कि तुम्हारे यहाँ आजकल क्या लिखा जा रहा हैं? मंटो ने दोबारा बड़ा असुविधाजनक सवाल उठाया।

-हमारे लेखक सोशल मीडिया पर एक दूसरे की टाँग खींचते हैं। लिखने पर आते हैं तो बड़े सलीक़े से कॉपी पेस्ट करते हैं। सम्मान पुरस्कार आदि के लिए अनुशंसा करते-करवाते हैं। एक रणनीति की तहत ख़ुद को तुलसी, मीर, ग़ालिब या शेक्सपियर घोषित करवाते ही रहते हैं। मैंने उसे उतना बताया जितना मुझे पता था।

-फिर भी, कभी-कभार कुछ तो ओरिजनल लिखते ही होंगे। आवाज़ में अजब जिज्ञासा थी।

-हाँ कुछेक जिद्दी लिक्खाड़ लिखते हैं गोकि लिखना ग़ैरज़रूरी है, फिर भी। असलियत यह है कि लिखने वालों के साथ कोई नहीं है, लेखन में लगे लोगों के पास ग़ुरबत, मायूसी और बेचारगी है। मैंने बेझिझक बता दिया।

-तो अब लिटरेचर के नाम पर कुछ छपता-वपता नहीं? उसके सवाल में हैरत के क़तरे दिखे।

-नहीं, नहीं, ऐसा नहीं। बड़े-बड़े नाम छपते हैं। ले-देकर नवोदितों की रंगीन जिल्द वाली किताबें धडाधड़ छप रही हैं। मज़े की बात यह कि काई लगी ईंट सरकाकर देखोगे तो उसके नीचे से आपको कोई न कोई व्यंग्यकार ज़रूर पंख तोलता मिलेगा। मैंने खुलासा किया।

-इतने मज़ाहिया? इसके कोई ख़ास वजह?

-मज़ाहिया नहीं, सीरियस क़लमकार। मैंने बात साफ़ करी। आपको जो मुहर्रमी चेहरा लिए ऐंठा-ऐंठा विचरित होता हुआ दिखे, जान लें कि वह शिखर पर पहुँचने का आतुर व्यंग्यकार जी हैं। यही हैं जो धड़ाधड़ लिखते हैं, दनादन छपते हैं। इनकी किताबें मंज़रे-आम पर झड़बेरी की बेर की तरह लगातर टपकती हैं।

-इन किताबों का होता क्या है? अब उसके सवाल में थोड़ी मात्रा ताज्जुब की भी थी।

-इनकी समारोहपूर्वक मुँह दिखायी होती है, जिसे लोग विमोचन कहते हैं जो दरअसल उत्सवधर्मी लोचन होता है। मैंने फ़लसफ़ाई हक़ीक़त इस तरह सामने रखी कि बात बड़े आला दर्जे की लगे।

-यार, कोई न कोई तो होगा जो इन्हें पढ़ता होगा?

-प्रूफ़रीडर ही हमारे अहद का वाहिद रीडर है। मैंने अनमोल वचन जैसी बात कही ।

तब मुझे मंटो के चेहरे के मर्तबान में तमाम रंगों की सवालिया मछलियाँ तैरती दिखीं। मैंने अपनी बात ज़रा खुलकर आगे बढ़ायी।

-दीमक इनको बड़े चाव से जीमती हैं। अलबत्ता पहले लुगदी साहित्य बाज़ार में खपता  था।

-अब?

लुगदी पढ़ने वाले मोबाइल के स्क्रीन के ‘टच’ में आए तो बस उसी के हो लिए। मज़े की बात यह कि इस लुगदी में अब हानिकारक केमिकल मिले होते हैं, इन्हें दीमक भी नहीं चखती। सुना है दीमकें ख़ुदकुशी को शैतानियत मानने लगी हैं।

मंटो ने यह सब सुनने के बाद एक लम्बी आह भरी और अपने दोनों हाथ बास्केट की जेब की तरफ़ ऐसे ले गया कि मानो वह धमाका करने की तैयारी में हो। और इसके बाद जो हुआ हुआ, उसकी वजह से मेरी मिचमिचाती आँखें ज़िन्दगी में शायद पहली बार पूरी तरह खुलीं। मैंने देखा कि एक मरियल-सा चूहा मंटों के अफ़सानों की भारी-भरकम सजिल्द किताब बक़लम ख़ुद अपने बिल में घसीट ले जाने की पुरज़ोर कोशिश में लगा है। अलबत्ता मंटो वहाँ कहीं नहीं दिखा। वह शायद अपनी बदनामियों को हमारी नेकनीयती के भरोसे छोड़ अपनी बेटियों के साथ इक्क्ल-दुक्कल खेलने के लिए उन्हें खोजता हुआ नामालूम दिशा में निकल लिया होगा।

अब मैं यह सोचकर उदास हूँ कि एक सौ साला बुज़ुर्ग अपनी अधेड़ बेटियों के साथ एक टाँग पर उछल-उछलकर बच्चों की तरह खेलता-झगड़ता भला कैसा दिखता होगा!

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निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : [email protected]

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