दिखते रहने के लिए मनुष्य
हम काटते रहते हैं अपने नाख़ून
छँटवाकर बनाते-सँवारते रहते हैं बाल
दाढ़ी रोज़ न सही तो एक दिन छोड़कर
बनाते ही रहते हैं
जो रखते हैं लम्बे बाल और
बढ़ाये रहते हैं दाढ़ी, वे भी उन्हें
काट-छाँटकर ऐसे रखते हैं जैसे वे
इसी तरह दिख सकते हैं सुथरे-साफ़
मनुष्य दिखते-भर रहने के लिए हम
करते हैं न जाने क्या-क्या उपाय
मसलन हम बिना इस्तरी किए कपड़ों में
घर से बाहर पैर तक नहीं निकालते
जूते-चप्पलों पर पालिश करवाना
कभी नहीं भूलते
ग़मी पर भी याद आती है हमें
मौक़े के मुआफ़िक़ पोषाक
अब किसी आवाज़ पर
दौड़ नहीं पड़ते अचानक नंगे पाँव
कमरों में आराम से बैठे-बैठे
देखते रहते हैं नरसंहार
और याद नहीं आता हमें अपनी मुसीबत का
वह दिन जब हम भूल गये थे
बनाना दाढ़ी
भूल गये थे खाना-पीना
भूल गये थे साफ़-सुथरी पोषाक
भूल गये थे समय दिन तारीख़
भूल जाते हैं हम कि बस उतने से समय में
हम हो गये थे कितने मनुष्य।
भगवत रावत की कविता 'हमने चलती चक्की देखी'