Mard Aur Aurat | a play by Rashid Jahan

लिप्यन्तरण: नग़मा परवीन

औरत: “अरे फिर आग गए।”

मर्द: “जी हाँ।”

औरत: “अभी कल ही तो आप शादी करने गए थे।”

मर्द: “गया तो था।”

औरत: “तो फिर?”

मर्द: “तो फिर?”

औरत: “मतलब यह है कि आपकी दुल्‍हन साहिबा कहाँ हैं?”

मर्द: “तुम तो सचमुच चाहती हो कि मेरी ज़िन्दगी बर्बाद हो जाए।”

औरत: “लीजिए, यह मैंने कब कहा।”

मर्द: “तो फिर तुम्‍हारा क्‍या मतलब है मुझको परेशान करने से।”

औरत: “मतलब।”

मर्द: “बनती क्‍यूँ हो। तुम मेरा मतलब ख़ूब अच्‍छी तरह जानती हो।”

औरत: “अच्‍छा, अब समझी। लेकिन, जनाब, मैं तो आपसे शादी करने को साल-भर से तैयार हूँ, आप ही नहीं करते।”

मर्द: “लेकिन मैं तो यह बात गँवारा नहीं कर सकता कि मेरी बीवी नौकरी करती फिरे। न घर की देखभाल करे, न बच्‍चों का ख़याल करे और सुबह ही सुबह उठकर काम पर सिधार जाए।”

औरत: “आप भी वो सुबह उठकर काम पर सिधार जाएँगे तो मैं सारा दिन क्‍या मक्खियाँ मारा करूँगी।”

मर्द: “घर में कुछ काम होता है या नहीं। आख़िर घर की देखभाल…”

औरत: “हूँ। आप दफ़्तर जाएँ और मैं घर का कोना-कोना झाँकती फिरूँ।”

मर्द: “मैंने यह कब कहा। आख़िर घर में भी तो काम होता है।”

औरत: “जैसे…”

मर्द: “भई, यही घर की देखभाल। आख़िर हमारी माँएँ भी घर की देखभाल करती थीं या नहीं।”

औरत: “तो चूल्‍हा झों‍क लिया करूँ।”

मर्द: “मैंने यह कब कहा।”

औरत: “तो फिर आपका मतलब घर की देखभाल से क्‍या है?”

मर्द: “भई, मुझे नहीं मालूम। तुमने बस यह आदत डाल ली है कि जहाँ मैं तुमसे मिलने आया और तुमने टाँग ली।”

औरत: “अच्‍छा अगर आपको मेरी आवाज़ पसन्‍द नहीं तो लीजिए मैं खामोश बैठी जाती हूँ… बताइए न, क्‍या सचमुच आपकी शादी हो रही है। या बस मुझ पर ही रोब गाँठा करते हैं।”

मर्द: “हो ही जाएगी। कोई जनाब ही तो इस दुनिया में अकेली औरत नहीं हैं। आपको मेरी इतनी फ़िक्र क्‍यूँ हैं।”

औरत: “इसीलिए कि मुझको बेइन्‍तहा मुहब्‍बत है।”

मर्द: “जी हाँ, मुहब्‍बत है। मुहब्‍बत होती तो साल से क्‍यूँ ज़िद किए बैठी रहतीं और इस तरह परेशान करतीं। नौकरी नहीं छोड़ेंगी। आख़िर रखा क्‍या है इस नौकरी में। कौन-सा एक हज़ार रुपया आप कमा रही हैं। सौ रुपया तो आपकी तनख़्वाह है।”

औरत: “कुछ भी हो। है तो यह मेरी आज़ादी की कुँजी।”

मर्द: “अर्थात आपकी आज़ादी की जान इन्‍हीं सौ रुपयों में है।”

औरत: “सौ हो या दो सौ, इससे बहस नहीं। आज़ादी की जान तो अपने पैरों पर ख़ुद खड़े होने में है।”

मर्द: “यानी आपको मेरा ज़रा भी विश्‍वास नहीं और आप सोचती हैं कि मैं आपको रुपया बिल्‍कुल नहीं दूँगा।”

औरत: “वह रुपया लेकिन मेरी अपनी मेहनत का कमाया तो न होगा।”

मर्द: “औरत के कमाने से होता क्‍या है।”

औरत: “होता क्‍यूँ नहीं। सुनिए। चिड़ा लाया चावन का दाना, चिड़िया लायी दाल का दाना, दोनों ने मिलकर खिचड़ी पकायी।”

मर्द: “नहीं चाहिए मुझे आपकी दाल का दाना।”

औरत: “ख़ाली चावल तो मुझसे खाए नहीं जाएँगे।”

मर्द: “जी हाँ, आपको तो चटनी-अचार की ज़रूरत है।”

औरत: “बिल्‍कुल ठीक।”

मर्द: “जब देखो एक जमघटा आपके चारों तरफ़ लगा रहता है। आपके परवाने।”

औरत: “उनको तो आप बिल्‍कुल घर में घुसने न देंगे।”

मर्द: “बिल्‍कुल नहीं।”

औरत: “आपको तो मालूम है कि वह सब मेरे दोस्‍त हैं।”

मर्द: “जी हाँ, बड़े दोस्‍त हैं।”

औरत: “तो फिर इन लोगों को तो आप घर में घुसने न देंगे।”

मर्द: “जी हाँ, मुझे इनसे सख़्त नफ़रत है।”

औरत: “क्‍यूँ?”

मर्द: “बस है अपनी-अपनी तबियत।”

औरत: “तो मुझे परदे में क्‍यूँ न बिठा दें।”

मर्द: “दिल तो यही चाहता है लेकिन आप मानेंगी।”

औरत: “मैं तो और भी बहुत-सी बातें नहीं मानूँगी।”

मर्द: “ख़ैर। आप मेरी कोई बात मानें या न मानें लेकिन मैं यह जमघटा गँवारा नहीं कर सकता।”

औरत: “तो फिर हमारे घर में कौन लोग आया करेंगे?”

मर्द: “वही जो कॉमन फ़्रेंड्स हों यानी दोनों के मिले-जुले दोस्‍त।”

औरत: “हूँ। मिस्‍टर और मिसेज़ सेठी और मिस्‍टर सफ़दर।”

मर्द – उनमें बुराई क्या है?”

औरत: “इसलिए कि वह मुझको बिल्‍कुल पसन्‍द नहीं।”

मर्द: “क्‍यूँ।”

औरत: “अपनी-अपनी तबियत।”

मर्द: “तुम तो बच्‍चों जैसी बातें करती हो।”

औरत: “और तुम।”

मर्द: “मैं तो हमेशा सही बात कहता हूँ।”

औरत: “जी हाँ। मेरे दोस्‍तों से आपको नफ़रत हो तो वह घर में न घुसें और आपके दोस्‍तों से मुझे नफ़रत हो तो वह शौक़ से आएँ-जाएँ।”

मर्द: “ठीक है, बीवी साहिबा सुबह से शाम तक नौकरी पर सिधारें, शाम को जब हम थक-थकाकर दफ़्तर से वापस आएँ और दो घड़ी दिल बहलना चाहें तो बीवी तो आएँ लेकिन दोस्तों की एक भीड़ लाएँ। यह है आपके दिमाग़ में घर का नक़्शा।”

औरत: “और आपके दिमाग़ का नक़्शा क्‍या है? बीवी हो। सुबह आप दफ़्तर जाएँ, जल्‍दी-जल्‍दी आप को सजाकर, गुड्डा बनाकर दफ़्तर भेजे। दिन-भर घर के पीछे डंडा लेकर घूमे जो हर समय आपके नाम की माला जपे। इस बेकारी की क़ैद का नाम आप ने घर की देखभाल रखा है। फिर दफ़्तर से थक-थकाकर बदमिज़ाजी करते हुए घर आएँ तो आपका दिल ख़ुश करे। शाम को सफ़दर साहब और मिसेज़ सेठी की हाँ में हाँ मिलाए।”

मर्द: “यह मैंने कब कहा।”

औरत: “और आप ने क्‍या कहा।”

मर्द: “मेरा तो सिर्फ़ यह मतलब है कि दूसरी औरतों की तरह आप भी रहिए।”

औरत: “फिर वही घर की देखभाल।”

मर्द: “जी हाँ, घर की देखभाल।”

औरत: “मैं नौकरी छोड़कर अपनी आज़ादी नहीं बेच सकती।”

मर्द: “आपकी आज़ादी।”

औरत: “जी हाँ, मेरी आज़ादी।”

मर्द: “आप नौकरी करती फिरें और बच्‍चे रोते फिरें।”

औरत: “बच्‍चे शादी होते ही थोड़ी हो जाएँगे।”

मर्द: “आख़िर कभी तो होंगे ही या आपको उनके जन्‍म से भी इंकार है।”

औरत: “नहीं, मुझे तो इंकार नहीं।”

मर्द: “और जब होगें तो आप नौकरी छोड़ देंगी।”

औरत: “नहीं, तब भी नहीं छोड़ूँगी।”

मर्द: “क्‍या मैं आपसे पूछ सकता हूँ कि उनकी देखभाल कौन करेगा?”

औरत: “मैं और आप दोनों मिलकर।”

मर्द: “औरत का पहला कर्त्तव्य बच्‍चों की परवरिश है।”

औरत: “मर्द का पहला कर्त्तव्य बच्‍चों का हक़दार होना है।”

मर्द: “क्‍या मतलब?”

औरत: “मतलब यह कि औरत को बच्‍चे पालने का हुक्‍म लगा दिया लेकिन बच्‍चे होते किसकी मिलकियत हैं।”

मर्द: “बाप की।”

औरत: “तो फिर मैं उनको क्‍यूँ पालूँ। जिसकी मिलकियत हैं, वह स्‍वयं पाले।”

मर्द: “क्‍या अजीब बातें करती हो।”

औरत: “इसमें अजीब कौन-सी बात है।”

मर्द: “अजीब नहीं तो और क्‍या? अब बच्‍चे पालने से भी तुम्‍हें इंकार है।”

औरत: “मुझे हो या न हो, तुम्‍हें है।”

मर्द: “मेरा काम बच्‍चे पालना नहीं, रुपया कमाना है।”

औरत: “रुपया तो मैं भी कमाऊँगी।”

मर्द: “हूँ… रुपया कमाएँगी। सौ रुपये पर इतना गर्व है। जो कहीं ज़्यादा होते तो न जाने क्‍या आफ़त ढातीं।”

औरत: “तो अच्‍छा समझो कि तुम्‍हारी पगार कम हो और मेरी आठ सौ तो नौकरी किसे छोड़नी चाहिए। तुम्‍हें या मुझे?”

मर्द: “तुम्‍हें।”

औरत: “क्‍यूँ?”

मर्द: “इसलिए कि मैं मर्द हूँ।”

औरत: “तो तुम हर बार अपने ही को बड़ा समझते हो।”

मर्द: “मैं क्‍या समझता हूँ, क़ुदरत ने ही मुझे बड़ा बनाया है।”

औरत: “मैं तो तुमको अपने से बड़ा नहीं ख़याल करती। तो फिर तुम क्‍यूँ एक ऐसी औरत से शादी नहीं कर लेते जो रात-दिन तुम्‍हारी पूजा किया करे।”

मर्द: “कर ही लेंगे। कोई एक आप ही तो दुनिया में नहीं।”

औरत: “तो फिर जाइए न। रोज़ क्‍यूँ आकर मेरी जान खा जाते हैं।”

मर्द: “(ठहरकर) बड़ा मुहब्बत का दम भरती हैं।”

औरत: “और आप भी तो भरते हैं।”

मर्द: “(ठहरकर) अच्‍छा यह सब तो हुआ, अब बताओ शादी कब करोगी।”

औरत: “लेकिन अपनी नौकरी नहीं छोड़ूँगी।”

Book by Rashid Jahan:

रशीद जहाँ
रशीद जहाँ (5 अगस्त 1905 – 29 जुलाई 1952), भारत से उर्दू की एक प्रगतिशील लेखिका, कथाकार और उपन्यासकार थीं, जिन्होंने महिलाओं द्वारा लिखित उर्दू साहित्य के एक नए युग की शुरुआत की। वे पेशे से एक चिकित्सक थीं।