‘निश्चित विषय’
विज्ञवरेषु, साधुवरेषु!
बहुत काल पश्चात आप सा पुरुष भाग्य का विधाता हुआ है। एक पंडित, विचारवान और आडम्बर रहित सज्जन को अपना अफसर होते देखकर अपने भाग्य को अचल अटल और कभी टस से मस न होने वाला, वरंच आपके कथनानुसार ‘Settled fact’ समझने पर भी आडम्बर शून्य भोले-भाले भारतवासी हर्षित हुए थे। वह इसलिये हर्षित नहीं हुए कि आप उनके भाग्य की कुछ मरम्मत कर सकते हैं। ऐसी आशा को वह कभी के जलांजलि दे चुके हैं। उनका हर्ष केवल इसलिये था कि एक सज्जन को, एक साधु को, यह पद मिलता है। भले का पड़ोस भी भला, उसकी हवा भी भली। “जो गन्धी कछु दै नहीं, तौहू बास सुबास।”
आप उपाधिशून्य हैं। आपको माई लार्ड कह के सम्बोधन करने की जरूरत नहीं है। अथच आप इस देश के माई लार्ड के भी माई लार्ड हैं। यहां के निवासी सदा से ऋषि मुनियों और साधु महात्माओं को पूजते आये हैं और यहां के देशपति नरपति लोग सदा उन साधु महात्माओं के सामने सिर झुकाते और उनसे अनुशासन पाते रहे हैं। उसी विचार से यहां के लोग आपके नियोग से प्रसन्न हुए थे। एक विचारशील पुरुष का सिद्धान्त है कि किसी देश का उत्तम शासन होने के लिये दो बातों में से किसी एक का होना अति आवश्यक है – या तो शासक साधु बन जाय या साधु शासक नियत किया जाय। हाकिम हकीम हो जाय या हकीम हाकिम बनाया जाय। इसी से आपको भारत का देशमन्त्री देखकर यहां की प्रजा को हर्ष हुआ था कि अहा! बहुत दिन पीछे एक साधु पुरुष – एक विद्वान सज्जन भारत का सर्व प्रधान शासक होता है।
भारतवासी समझते थे कि मिस्टर मार्ली विद्वान हैं। विद्या पढ़ने और दर्शन-शास्त्र का मनन करने में समय बिताकर वह बूढ़े हुए हैं। वह तत्काल जान सकते हैं कि बुराई क्या है और भलाई क्या, नेकी क्या है और बदी क्या? उनको बुराई और भलाई को समझने में दूसरे की सहायता की आवश्यकता नहीं। वरंच वह स्वयं इतने योग्य हैं कि अपनी ही बुद्धि से ऐसी बातों की यथार्थ जांच कर सकते हैं। दूसरों के चरित्र को झट जान सकते हैं। वह दोषी को धमकायेंगे और उसे सुमार्ग में चलाने का उपदेश देंगे। भारतवासियों का विचार था कि आप बड़े न्यायप्रिय हैं। किसी से जरा भी किसी विषय में अन्याय करना पसन्द न करेंगे और खुशी को नेकी से बढ़कर न समझेंगे। उचित कामों के करने में कभी कदम पीछे न हटावेंगे और कोई लालच, कोई इनाम और कोई भारी से भारी पद वा राजनीतिक दांवपेच आपको सत्य और सन्मार्ग से न डिगा सकेगा। आपके मुंह से जो शब्द निकलेंगे, वह तुले हुए सत्य होंगे। यही कारण है कि भारतवासी आपके नियोग की खबर सुनकर खुश हुए थे।
पार्लीमेंट के चुनाव के समय जिस प्रकार भारतवासी आपके चुनाव की ओर टकटकी लगाये हुए थे, आपके भारत सचिव हो जाने पर उसी प्रकार वह आपके मुंह की वाणी सुनने को उत्सुक हुए। पर आपके मुंह से जो कुछ सुना उसे सुनकर वह लोग जैसे हक्का बक्का हुए ऐसे कभी न हुए थे। आपने कहा कि बंग भंग होना बहुत खराब काम है, क्योंकि यह अधिकांश प्रजावर्ग की इच्छा के विरुद्ध हुआ। पर जो हो गया उसे Settled fact, निश्चित विषय समझना चाहिए। एक विद्वान पुरुष दार्शनिक सज्जन की यह उक्ति कि यह काम यद्यपि खराब हुआ, तथापि अब यही अटल रहेगा। इसकी खराबी अब दूर न होगी। किमाश्चर्यमतः परम।
लड़कपन में एक देहाती की कहानी पढ़ी थी जिसका गधा खोया गया था और वह एक दूसरे की गधी को अपना गधा बताकर पकड़ ले जाना चाहता था। पर जब उसे लोगों ने कहा कि यार! तू तो अपना गधा बताता है, देख यह गधी है; तो उसने घबराकर कहा था कि मेरा गधा कुछ ऐसा गधा भी न था। गंवार का गधा गधी हो सकता है, पर भारत सचिव दार्शनिक प्रवर मार्ली साहब जिस काम को बुरा बताते हैं, वही ‘निश्चित विषय’ भी हो सकता है, यह बात भारतवासियों ने कभी स्वप्न में भी नहीं विचारी थी। जिस काम को आप खराब बताते हैं, उसे वैसे का वैसा बना रखना चाहते हैं, यह नये तरीके का न्याय है। अब तक लोग यही समझते थे कि विचारवान विवेकी पुरुष जहां जायेंगे वहीं विचार और विवेकी मर्यादा की रक्षा करेंगे। वह यदि राजनीति में हाथ डालेंगे तो उसकी जटिलता को भी दूर कर देंगे। पर बात उल्टी देखने में आती है। राजनीति बड़े-बड़े सत्यवादी साहसी विद्वानों को भी गधा गधी एक बतलाने वालों के बराबर कर देती है।
विज्ञवर! आप समझते हैं और आप जैसे विद्वानों को समझना चाहिये कि सत्य सत्य है और मिथ्या मिथ्या। मिथ्या और सत्य गड़प शड़प होकर एक हो सकते हैं, यह आप जैसे साधु पुरुषों के कहने की बात नहीं है। विज्ञ पुरुषों के कहने की बात नहीं है। विज्ञ पुरुषों की बातों को आपस में टकराना न चाहिये। पर गत बजट की स्पीच में आपने बातों के मेढ़े लड़ा डाले हैं। आपने कहा है – “जहां तक मेरी कल्पना जा सकती है, भारत शासन यथेच्छ ढंग का रहेगा।” पर यह भी कहा है – “भारत में किसी प्रकार की बुरी चाल चलना हमें उससे भी अधिक खराबी में डालेगा, जितना दक्षिण अफ्रीका में चार साल पहले एक बुरी चाल चलकर खराबी में पड़ चुके है।”
आपने कहा है – “हिंदुस्तानी कांग्रेस की कामनाओं को सुनकर मैं घबराता नहीं।” पर यह भी कहा – “जो बातें विलायत को प्राप्त हैं, वह भारत को सब नहीं प्राप्त हो सकतीं।” आपकी इन दो रंगी बातों से भारतवासी बड़े घबराहट में पड़े हैं। घबराकर उन्हें आप के देश की दो कहावतों का आश्रय लेना पड़ता है कि – राजनीतिज्ञ पुरुष युक्ति या न्याय के पाबन्द नहीं होते अथवा राजनीति का कुछ ठिकाना नहीं।
आपको अपने ही एक वाक्य की ओर ध्यान देना चाहिये – “अपनी साधारण योग्यता के परिणाम से ही कोई आदमी प्रसिद्ध या बड़ा नहीं हो सकता। वरंच उचित समय पर उचित काम करना ही उसे बड़ा बनाता है।” जिस पद पर आप हैं – उसकी जो कुछ इज्जत है, वह आपकी नहीं, उस पद की है। लार्ड जार्ज हमिल्टन और मिस्टर ब्राडरिक भी इसी पद पर थे। पर इस पद से उनकी इतनी ही इज्जत थी कि वह इस पद पर थे। बाकी उनके कामों के अनुसार ही उनकी इज्जत है। आपका गौरव इस पद से नहीं बढ़ना चाहिए। वरंच आपके कामों से इस पद की कुछ मर्यादा बढ़नी चाहिये।
भारतवासियों ने बहुत कुछ देखा और देख रहे हैं। इस देश के ऋषि-मुनि जब बनों में जाकर तप करते थे और यहां के नरेश उनकी आज्ञा से प्रजापालन करते थे, वह समय भी देखा। फिर मुसलमान इस देश के राजा हुए और पुराना क्रम मिट गया, वह भी देखा। अब देख रहे हैं, सात समुद्र पार से आई हुई एक जाति के लोग जो पहले बिसाती के रूप में इस देश में आये थे और छल बल और कौशल से यहां के प्रभु बन गये। यह देश और यहां की स्वाधीनता उनकी मुठ्ठी की चिड़िया बन गई। और भी न जाने क्या क्या देखना पड़ेगा। पर संसार की कोई बात निश्चित नहीं है, यह बात यहां के लोगों की समझ में नहीं आती। निश्चित ही होती तो लार्ड जार्ज हमिल्टन और ब्राडरिक की गद्दी साधुवर मार्ली तक कैसे पहुंचती।
न बंग भंग ही निश्चित विषय है और न भारत का यथेच्छ शासन। स्थिरता न प्रभात को है और न सन्ध्या को। सदा न वसन्त रहता है, न ग्रीष्म। हां, एक बात अब भारतवासियों के जी में भली भांति पक्की होती जाती है कि उनका भला न कन्सरवेटिव ही कर सकते हैं और न लिबरल ही। यदि उनका कुछ भला होना है तो उन्हीं के हाथसे। इसे यदि विज्ञवर मार्ली ‘निश्चित-विषय’ मान लें तो विशेष हानि नहीं।
अत: भारतवासियों का भला या बुरा जो होना है सो होगा, इसकी उन्हें कुछ परवा नहीं है। उन्हें ईश्वर पर विश्वास है और काल अनन्त है, कभी न कभी भले का भी समय आ जायगा। भारतवासियों को चिन्ता केवल यही है कि उनके देश सचिव साधुवर मार्ली साहब को अपनी चिरकाल से एकत्र की हुई कीर्ति और सुयश को अपने वर्तमान पद पर कुरबान न करना पड़े। इस देश का एक बहुत ही साधारण कवि कहता है –
झूठा है वह हकीम जो लालच से माल के,
अच्छा कहे मरीज के हाले तबाह को।
अपने लालच के लिये यदि रोगी की बुरी दशा को अच्छा बतावे तो वह हकीम नहीं कहला सकता। भारतवासी आप को दार्शनिक और हकीम समझते हैं। उनको कभी यह विश्वास नहीं कि आप अपने पद के लोभ से न्याय-नीति की मर्यादा भंग कर सकते हैं या अपने दल की बुराई भलाई और कमजोरी मजबूती के खयाल से भारत के शासन रूपी रोगी की बिगड़ी दशा को अच्छी बता सकते हैं। आप ही के देश का एक साधु पुरुष कह गया है – “आयर्लेण्ड की स्वाधीनता मेरे जीवन का व्रत है, पर इस स्वाधीनता पाने के लोभ से भी मैं दक्षिण अफरीका वालों की स्वाधीनता छिनवाने का समर्थन कभी न करूंगा।” अतः आपसे बार बार यही विनय है कि अपने साधु पद की मर्यादा का खूब विचार रखिये। भारतवासियों को अपनी दशा की परवा नहीं। पर आपकी इज्जत का उन्हें बड़ा खयाल है। कहीं आप राजनीतिक पद के लोभ से अपने साधु पद को उस देहाती का गधा न बना बैठें।
अपने सिर का तो हमें कुछ गम नहीं,
खम न पड़ जाये तेरी तलवार में।