कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘ज़िन्दगीनामा’ अविभाजित पंजाब के लोगों का सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास समेटता एक बेहद पठनीय उपन्यास है। इसके लिए कृष्णा सोबती को 1980 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसी उपन्यास का एक बहुत रोचक अंश यहाँ प्रस्तुत है। इस अंश को पढ़कर आप भी इस उपन्यास की एक झलक पा सकते हैं। 

मदरसे के बाहर बारिश और ओले और अन्दर मौलवीजी के सवालों की तोपें। और इन तोपों से बचते हुए बच्चों को घर जाने की जल्दी। ऐसे में सवाल क्या और जवाब क्या, है तो बस किसी तरह पिंड छुड़ाने की जद्दोजहद..। – पोषम पा

सावन की जल-बिम्बियाँ यह आ और वह जा। फण्कारे मारते पनीले मींह ऐसे घिर-घिर आए ज्यों ग़ाज़ी मरदों के लश्कर! बादल गरजें-कड़कें कड़ाकों से मानो फौजों की टुकड़ियाँ! बिजली लप्प-लप्प चमकें ज्यों तलवारें! चमा-चम्म! झमा-झम्म!

मदरसे में बैठ बच्चों ने हाथी-जैसा मंडराता बादल जुम्मेवाले खू पर देखा तो दबादब बसते संभालने लगे।

“निकलो, भई, निकलो, फौजें आ गयीं!”

मौलवीजी ने भगदड़ देखी तो देखते ही धौंसा दिया- “ओए रानी खां के ढेके, ख़बरदार! कोई मदरसा न छोड़े। चलो, चलकर अन्दर बैठो।”

मौलवीजी की आवाज़ में ऐसा टंकार कि अभी दिन उघड़ा हो। कड़ककर कहा- “गौहर शनास, लड़कों को दो टोलियों में बाँट दो!”

“जी, जनाब!”

“हाँ, काले कोच्छड़ों का बोद्दा किधर है?”

“जी, यह रहा मैं हाज़िर!”

“है न तेरा दिमाग इस वक़्त रोशन!”

“जनाब, कुछ लगता तो है!”

“तो चलो, कच्ची-पक्की को बड़ों से अलैहदा कर दो।”

गौहर शनास और बोद्दे ने भारी हत्थीं सिरों पर मार चपेड़े झटापट टैनों को गुट्ठे लगा दिया।”

छोटे बच्चे मच गए:

लायक से बढ़िया फ़ायक
अगड़म से बढ़िया बगड़म
हाज़ी से बड़ी हज्जन
मूत्र से बड़ा हग्गन।

मौलवीजी की आवाज़ कड़की- “चुप्प!”

बोद्दे का छोटा भाई रोडा न डरा। न चुप हुआ:

शमाल में कोह हिमाला
जनूब में तेरा लाला
मशरिक में मुल्क ब्रह्मा
मग़रिब में तेरी अम्मा।

गौहर शनास ने पकड़कर तख्ती उसके हाथ से, पीठ पर दे मारी- “ओए, अब भी चुप्प कि नहीं?”

मौलवीजी ने आवाज़ दी- “नहीं मानता तो बना दे मुर्गा!”

छोटी सी आवाज़ आई- “मैं मान गया हूँ न मौलवीजी! कान खींच लिए हैं अपने। बस।”

“अच्छा! बोधराज, इन कमचोरों को भी धार पर चढ़ा दे!”

“जी जनाब!”

बोद्दा अपने और मौलवीजी के मिले-जुले रौब में सवाल दागने लगा:

पंछियों में सैयद- कबूतर
पेड़ों में सरदार- सीरस
पहला हल जोतना- न सोमवार, न शनिवार!
गाय-भैंस बेचनी- न शनीचर, न इतवार!
दूध की पहली पांच धारें- धरती को!
नूरपुर शहान का मेला- बैसाख की तीसरी जुम्मेरात को!
चिर-पहाड़- रावलपिंडी से पांच कोस दूर!
जो चमके बिजली बैसाख की पहली सुदी- तो भर-भर दाने कोठों में!

कोने में बैठे हौलू ने तुक मिलाई- “पल्ले दाने तो कमले भी सयाने!”

जोगे ने गौहर की सैनत मारी- “अँधेरे में एक-दूसरे का मुंह नहीं दीखता उस्ताद जी, तो जवाब कहाँ से ढूंढ के लाएंगे!”

मौलवीजी हँसे- “अहमक़! ओए, जिसके दिमाग में रोशनी हो वहाँ बराबर गुल जलती रहती है। चल गौहर पुत्तर, जला दे चिराग़!”

लड़कों में खुसपुस होने लगी।

शेरे से न रहा गया- “मौलवीजी, मेंह के तो परनाले बह रहे हैं! थल्ली वंड के खोब्बे में से कैसे निकलेंगे?”

मौलवीजी ने हुक्के की गुड़-गुड़ जारी रखी।

रक्खे ने शेरे की गुद्दी पर टोहका दिया- “ओए, देख बाहर!”

पूरा जमघट हल्ला करने लगा:

“ओले पड़ गए टपा-टप्प
फौजें चढ़ आईं दबा-दब्ब!
दौड़ो यारो दौड़ो
चलो मदरसा छोड़ो!”

मौलवीजी ने अँधेरे में ही दो-चार सिर गरमा दिए।

“बैठ जाओ सीधी तरह भूतनो, ऐसा मारूँगा कि मलोले खाओगे!”

बड़े लड़के हिनहिन करने लगे और छोटे झूठ-मूठ सिसकारियाँ भरने लगे।

मौलवीजी कड़के- “चौप्प ओए चुप्प!”

गौहर ने चिराग़ जला मौलवीजी के पास घड़े की चप्पनी पर रख दिया तो तुलबा की भीड़ में खुद मौलवीजी चिराग़ की तरह चमकने लगे।

“गुलज़ारीलाल, मरगल्ला पहाड़ियाँ कहाँ हैं?”

“रावलपिंडी के पास, जनाब!”

“भला जरनैल निकलसन बहादुर की यादगार कहाँ है?”

“जी, वहीं, मरगल्ला दर्रे के पास!”

“शाबाश!… गौहर शनास, सिंह की बाब कहाँ हैं?”

“जनाब, दरिया काबुल और सिंध जहां मिलकर नीलाभ बन जाते हैं, वहीं है सिंह की बाब!”

“रोडया, काला चिट्टा पहाड़ कहाँ हैं?”

“अटक के पास!”

“अटक के पास?” मौलवीजी ने कान पकड़कर उठा दिया- “पहले कहते हैं जनाब या जी! क्या समझे!”

रोडे ने कनपटी पर हाथ रखा और मुस्तैदी से कहा- “जी, जनाब!”

ताकी के पीछे से आवाज़ आई:

“आलू अलूचा फ़ालसा
काबुल में पहुँचा ख़ालसा!”

गौहर शनास, शुर्ली है यह! पकड़ के ले आ मेरे पास इसे!”

चटाक-पताक मौलवीजी ने दो लगाए- “आज के अलूचे तो दो खरे हो गए?”

“जनाब!”

बड़े लड़के गुलों के नाम लें:

गुले-लाला
गुले-यामसन
गुले-पलाश
गुले-शब्र अफ्रोज़
गुले-सूरी
गुले-हज़ारा
गुले-जाफ़री!

कच्ची जमात के बस्सो दाई के लड़के हौलू ने महीन सी हेक निकाली- “जी, मैं भी एक बताऊँ?”

गौहर ने एक रसीद की पुड़पुड़ी पर- “अलिफ़-बे आता नहीं और शायरी करने चला है! बैठ जा!”

मौलवीजी ने बड़े प्यार से बुलाया- “हौलू पुत्तर, इधर आ! मेरे पास!”

हौलू ने नाक से बहते सींड को बाजू से पोंछा और डरते-डरते पास आ खड़ा हुआ।

“बोलो, क्या कहना चाहते थे?”

“जी, एक गुल का नाम बताऊँ?”

मौलवीजी ने सिर हिलाकर इज़ाजत दी।

“गुले-ख़ुदरो!”

मौलवीजी खुश हुए- “पुत्तरजी, कहाँ से सुना?”

“जनाब, आपसे!”

“लड़को, अपना कहना यह है कि होलू की खोपड़ी में है कोई बीज काम का! गौहर शनास, संदूकची में से कलम निकाल दो। इनाम है होलू का!”

कलम लेकर निक्के होलू को ऐसी शर्म आई कि मुंह में उंगली डाल नाखून कुतरने लगा।

बादलों की गड़गड़ाहट में बिजली यकायक इतने ज़ोर से कड़की ज्यों मदरसे के बाहर ही गिरी हो!

कच्ची-पक्की के बच्चे-बेटड़े डुसकने लगे- “हाय ओ बेबे!”

“जी, मेरी माँ ढूंढती फिरेगी!”

“जी, मेरा चाचा फिकर करेगा!”

“मेरा लाला…”

मौलवीजी हुक्के की नड़ी मुँह से निकाल हसने लगे- “ओए खोत्ते के पुत्रो, डर से तुम्हारी पजामियाँ तो नहीं गीली हो गईं! बैठे रहो आराम से जब तक मींह न थमे। दमोदरा, उठकर बताओ, गुजरात का किला किसने बनवाया था?”

दामोदर ठिंगने ने ताबड़तोड़ इबारत शुरू कर दी- “गुजरात का किला हिन्दोस्तान के मुग़ल शहंशाह अकबर ने बनवाया था।”

“मुग़ल सल्तनत के दिनों में चलन यह था कि जहाँ हुकूमत किला बनवाने का फैसला करे, उस पर होने वाला आधा खर्चा वहां की रियाया दे और आधा दिल्ली की हुकूमत।”

“बादशाह सलामत ने शहर की सलामती के लिए किला बनवाने का ऐलान किया तो इलाके के जट्ट बिगड़ गए। उन्होंने खर्चा उठाने से साफ़ इनकार कर दिया।”

“अकबर बादशाह ने गुज्जरों के सरदारों को समझाया-बुझाया तो वे मान गए।”

“वड़ैच पिंड डिंगा के चौधरी फ़तेह मुहम्मद ने रुपया-पैसा इकठ्ठा करने का सारा जिम्मा अपने सिर पर ले लिया।”

“दीनगाह के अमीर गुज्जर आदम ने बोरियाँ भर-भरकर दौलत दी।”

“किला जब बनकर तैयार हुआ तो बादशाह सलामत ने खुश होकर शहर का नाम गुजरात अकबराबाद कर दिया।”

“जट्ट बड़े नाराज़ हुए।”

“दिल्ली शिकायत लिख भेजी कि मुल्क के पादशाह को किसी भी एक फ़िरके को दूसरे के खिलाफ़ ऊपर चढ़ाना मुनासिब नहीं। महल जितना गूजरों का है उतना ही जट्टों का भी है।”

“जवाब आया- जो नाम रखा जा चुका, बदला नहीं जा सकता। हाँ, जट्ट अपनी तरफ के इलाके का जो भी नाम रखना चाहें, हम उन्हें मंजूरी देंगे।”

“जट्टों के मूरिस क्योंकि ‘हेरात’ से आए थे, उन्होंने अपने इलाके का नाम रख लिया हेरात।”

“एक बार बादशाह कुंजाह के आसपास हीरा-हिरण का शिकार खेलने गया। जंगल की खूबसूरती देखकर फ़रमाया- ‘असली हेरात में बढ़िया-से-बढ़िया घोड़े और गुजरात हेरात में बढ़िया-से-बढ़िया काले हिरण।’ दरबारियों से पूछा- ‘किस हेरात को बढ़िया माना जाए- इसको या उसको?'”

“बादशाह सलामत, दोनों ही एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर हैं।”

मौलवीजी ने फत्ते को बाहर झांकते देखा तो आवाज़ दे दी- “फत्तया, दर्रों के नाम गिना!”

“खैबर, ख़ुर्रम, टोची, गोमल और जी रब्ब आपका भला करे, ईरान!”

“ईरान कि ‘बोलान’?”

फत्ते को जाने की जल्दी थी सो लापरवाही से कहा- “अहो जी, कुछ भी हो हमारी तरफ से! अब छुट्टी कर दो! घर पहुँचते बनें। आसमान देखो। अंधेर घुप्प घेंर!”

मौलवीजी गरजे- “ओ जट्टा, ईरान और बोलान में तेरे भाने कोई फ़र्क ही नहीं? कर हाथ…”

उठा के मौलवीजी ने ऐसी छड़ मारी कि लड़कों के तालू सूख गए।

“बन्तेया, नाम गिना अपने इलाके के जंगल-बेलों के!”

“चक ग़ाज़ी, लंगा रुक्ख, धूल रुक्ख, मारी खीखरन, पिंड तातार, भक्ख पब्बी, सादुल्लापुर…”

मौलवीजी ने उठकर एक कनपटी पर चपेड़ मारी- “ओए सुअरा, यह क्या टैश और टश्श है तेरी! बिना रुके बोलता चला जाता है ज्यों खुद ही उस्ताद हो! पेट से ही पढ़कर निकला हो!”

बन्ते को आग लग गयी। कान पर हाथ रखे घूरता रहा।

“मोटी बुद्धवाले, अगर जवाब तुम्हें याद है तो उगलने की क्या जल्दी है! नाम ऐसे दोहराए जाते हैं, जैसे रफ़्ता-रफ़्ता याद आते चले जा रहे हैं! फिर कभी गलती न हो!”

हबीब को आवाज़ पड़ गयी- “हबीबेया!”

“जी, आज हबीब ग़ैर-हाज़िर है। उसकी भैंस सूई है।”

निक्के को सूझ गया- “मौलवीजी, अब तो आपके लिए दही-लस्सी आया करेगी!”

“केशोलाल, समुद्र के नाम ताज़ा कर!”

“बहरुल काहिल
बेहरे-सीन
बेहरे अख्ज़र
बेहरे-असवद
बेहरे-दकियानूस…”

“कुन्दज़हन! औकियानूस को दकियानूस! इधर आ!”

केशोलाल ने कान पकड़ लिए- “भूलेक्खा पड़ गया मौलवीजी! आज माफ़ी दे दो! गिनकर सौ बार याद करूँगा!”

“ओए, तेरी यह अटक बहुत पुरानी है। फिर भूला तो?”

“न जनाब, याद कर लूँगा!”

फत्ता उठकर पास आ गया- “मौलवीजी, आपाँ चले! मेरी तो आज छुट्टी कर छोड़ो!”

“मूर्खा, खुदखुदी काहे की! छुट्टी तेरे कहने से होगी कि मेरे कहने से?”

फत्त जट्ट अड़ गया- “आज तो, जी, ये बातें बेफ़ायदा ही हैं न! इस बरसात में हमारे ढोर-डंगर कौन देखेगा!”

उत्तरी वंडवाले मुद्दरे ने भी मौका ताड़ा। टपोसी मार उठ खड़ा हुआ- “मौलवीजी, फिटे मुँह मेरा- मेरे वल्द जुते थे खेतों में। लो जी, मैं गया…”

देखा-देखी छोटे टींडे-गींडे भी मच गए। हाथापाई शुरू हो गयी।

मौलवीजी ने गौहर को पुचकारकर कहा- “पुत्तरजी, इन्हें जाने दो! ओ टिड्डो जायो, जाकर माँओं से तत्ते-तत्ते पूड़े खाओ!”

छोटे लड़कों ने दो-दो की जोड़ियाँ बना लीं। पजामियाँ टूंग सिरों पर तख़्तियाँ रख घरों को दौड़ चले।

झोटे नूँ गाह
बुद्धो नूँ राह
मर्द नूँ चक्की
घोड़े नूँ चट्टी
चरे राह कुराह
ओ झोटे नूँ गाह।

मौलवीजी बड़े प्यार सिदक से अपने कच्चे शागिर्दों को जाते देखते रहे। फिर पक्कों को आवाज़ दी- “गौहर पुत्तरजी, ज़रा चिलम को ताज़ा करो! दूधारने में अँगियारी ज़रूर होगी। हाँ, सयाने लड़के ‘पंडनामा’ खोलकर पढ़ें और बाद में पढ़ें गुलिस्ताँ बामानी।”

रागियों के जगतार ने बहाना बनाया- “आपके लिए मेरी बेबे ने खीर चढ़ा रखी थी। मैं लेने न पहुँचा तो मार-मार मुझे फट्टड़ कर देगी।”

“नालायको, सोचता होगा, खीर के नाम से तेरी छुट्टी कर दूँगा! ऐसे फ़तेह पेंच डाले मुझ पर तो सूअरवाली थूथनी गोंध दूँगा!”

एकाएक शुर्ली ने हांक मार दी- “दौड़ो, दौड़ो, मौलवीजी की हँडिया में बिल्ली मुँह मार गयी।”

गौहर ने हँडिया पर झुके-झुके शुर्ली को चूंडी काट दी और मौलवीजी को सुनाकर कहा- “बिल्ली ने हँडिया की छूनी ही कवासी है, मुँह नहीं मारा! देख लो, मलाई का थर वैसा का वैसा बँधा है!”

सुनकर मौलवीजी की भूख जाग पड़ी।

“पुत्तरों, ज़रा सखी सरवर लक्खनदाता को ताजा करो। फिर तुम्हें छुट्टी देते हैं!”

गौहर और बोद्दे ने एक साथ ऊँची आवाज़ में बोल उठाया तो बाकी लड़के भी तर्ज़ पा आ गए:

“पंज सदी के अव्वल या कि चार सदी के आख़ीर
मुल्क अरब से फ़ित्ना उठकर क़ायम हो गया आख़ीर
जैनब दीन बाप सैय्यद अहमद तरक वतन तब किया
अरब छोड़ पंजाब में शाह कोट सान सा लिया
सैय्यद होने इन साहिब में शुबह न शक्क है भूल
सैय्यद हुसैनी इनको जानो मानो अल रसूल।”

कृष्णा सोबती
कृष्णा सोबती (जन्म-१८ फ़रवरी १९२५, गुजरात में) (सम्बद्ध भाग अब पाकिस्तान में) मुख्यतः हिन्दी की आख्यायिका (फिक्शन) लेखिका हैं। उन्हें १९८० में साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा १९९६ में साहित्य अकादमी अध्येतावृत्ति से सम्मानित किया गया था। अपनी बेलाग कथात्मक अभिव्यक्ति और सौष्ठवपूर्ण रचनात्मकता के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने हिंदी की कथा भाषा को विलक्षण ताज़गी़ दी है। उनके भाषा संस्कार के घनत्व, जीवन्त प्रांजलता और संप्रेषण ने हमारे समय के कई पेचीदा सत्य उजागर किये हैं।