मैंने
अपनी उपस्थिति का अर्थ
इन दरख़्तों के बीच
कितनी देर में जाना
जो कटकर भी लकड़ी नहीं बनते
और जमे रहकर भी वृक्ष नहीं।
कितनी देर में आयी वह आवाज़
उस घर से
जहाँ मेरा न होना
ख़ुद मुझे ही मालूम नहीं था।

एकान्त अपना कैसे हो सकता था
जबकि आसपास इतने लोग थे
बातें करते हुए
इधर से उधर, उधर से इधर
मुझे उठाते-रखते हुए।

एकान्त अपना कैसे हो सकता था
जबकि
पैरों के व्रण
और हृदय की आग में
लम्बा फ़ासला था।

दरख़्त
जो कटकर भी लकड़ी नहीं बनते
और जमे रहकर भी वृक्ष नहीं
न घर हैं
न जंगल।

पर अब लगता है
कहीं कोई काट रहा है
मुझे
मेरे अन्दर
अपने एकाकी मौन में

शायद वह—
जिसने एकत्रित किया था
आकाश की थाली में
मेरा ‘अपनापन’।

अमृता भारती की कविता 'पुरुष-सूक्त : अँधेरे की ऋचा'

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अमृता भारती
जन्म: 16 फ़रवरी, 1939 हिन्दी की सुपरिचित कवयित्री।