मेरा ख़याल शायद काले पानी की सज़ा काट रहा है
घुटन और अंधेरे में अब जाने कितने साल हो गए हैं
अब तो रौशनी से मिलने की चाहत भी नहीं है
किसी मुसव्विर के उस कैनवास के तरह पड़े रहता है
जो तस्वीर पूरी होने से पहले ही बिगड़ गई हो।
ये हुस्न, नज़ाकत, खिज़ाँ, और खूबसूरत सहर तो मौजूद है अपनी अपनी जगह।
ये ख़याल अब लेटे रहना चाहता है,
नहीं होना चाहता बयाँ।
एक लम्बी नींद, और फिर सो जाना चाहता है।
एक चराग़ है दाईं ओर
जिससे रौशनी तो हो रही है पर इतनी कम कि अगर अंधेरा ही हो जाए तो ज़्यादा सुकून आए।
मेरा ख़याल उस चराग़ की लौ होना चाहता है,
जो कि अभी कुछ ही देर में बुझेगा और लोग कहेंगे कि हवा काफी तेज़ थी।
मगर सिर्फ उसे ही पता है कि वो खुद बुझना चाहता है।

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