कितने कष्टकारी और त्रासद होते हैं
वे चार-पाँच दिन जब-
मेरी देह से अलग हो रहे होते हैं,
मेरी देह के टुकड़े।
कुछ टूट कर बिखरता है,
नूतन का सृजन न कर पाने के दुःख में।
बहुत कुछ खोती हूँ
उन दिनों मैं-
मेरे शरीर से माँस के लोथड़े,
मेरे रक्त का अंश,
और अपनों का अपनत्व भी।
सदियों से चली आ रही परम्परा में,
कोने में पड़े रह कर-
अछूत भी कहलाई।
तिमिर जो दूर तक है,
हर मास ही तो यह संघर्ष
स्त्री होने का।
लाल रंग जो
तुम्हें देता पौरुष,
तिलक लगा लाल,
कहलाते वीर।
मिट्टी होती कीचड़,
होती लाल- फिर सृजन प्रतीक।
मैंने तो
पूरी सृष्टि रची है,
अपने इस ‘लाल रंग’ से,
नौ माह कोख में रख,
किया समर्पित तुम्हें।
फिर तुम्हें मिला
तुम्हारा ‘लाल’।
हुए तुम-
पूरित, सम्मानित, गर्वित।
फिर भी
‘मेरा लाल रंग’
क्यों है अछूत और तिरस्कृत।

यह भी पढ़ें:

ममता कालिया की कविता ‘उँगलियों के पोरों पर दिन गिनती’
अनामिका की कविता ‘मरने की फुर्सत’
सुमित की कविता ‘तुम्हारे पढ़ने के योग्य नहीं’

Previous articleपंथ होने दो अपरिचित
Next articleमैं किसी आकुल हृदय की प्रीत लेकर क्या करूँगा

2 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here