‘अपरिचित उजाले’ से

मेरे और तुम्हारे बीच
अब वह नहीं रहा
जिसे हम आज तक
प्यार समझे जिए।
प्यार तुम्हारी एक आदत
महज़ जीने की सुविधा
ठीक जैसे, मेज़, कुर्सी
या अपनी क़लम।
या फिर आलमारी में टँगी हुई
कोई पुरानी टाई
जिसे तुम ग़ौर से… देखते हो देर तक
मैं वही हूँ।

सम्पूर्णता तुम्हारी
कोई समस्या नहीं
तुम हर चीज़ को टुकड़ों में बाँटकर
एक सतही समूचेपन में
आत्मतुष्ट हो—
पर बन्धु! मैं इस मन का क्या करूँ?
जो सदा प्रतीक्षा करता है
उस ऐसे ख़ास विस्फोट की
जो पूरी की पूरी बात
संगीत में उभार दे
तुम्हारी लम्बी बहसों के बीच
अक्सर पाती हूँ
भीतर की लड़की
विक्टोरिया घूमने चली गयी है।

प्रभा खेतान की कविता 'तुम जानते हो'

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प्रभा खेतान
(1 नवम्बर 1942 - 20 सितम्बर 2008) प्रतिष्ठित उपन्यासकार, कवयित्री, नारीवादी चिंतक व समाज सेविका।